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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

भारत में शिक्षा का विकास

विश्वविद्यालय आयोग व अधिनियम

जब लॉर्ड कर्ज़न भारत का वायसराय बना तो उसने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति की कड़ी आलोचना की। उसने कहा कि 'मैकाले की नीति देशी भाषाओं के विरुद्ध है।' सितम्बर, 1801 ई. में कर्ज़न ने एक सम्मेलन बुलाया, जहाँ उसने भारत में शिक्षा के सभी क्षेत्रों की समीक्षा की बात कही। 1902 ई. में कर्ज़न ने सर टॉमस रो की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग की स्थापना की। इस आयोग में सैयद हुसैन बिलग्रामी एवं जस्टिस गुरुदास बनर्जी सदस्य के रूप में शामिल थे। इस आयोग का उद्देश्य विश्वविद्यालयों की स्थिति का अनुमान लगाना एवं उनके संविधान तथा कार्यक्षमता के बारे में सुझाव देना था। इस आयोग का कार्य क्षेत्र उच्च शिक्षा एवं विश्वविद्यालय तक ही सीमित था। 1904 ई. में 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' विश्वविद्यालय तक ही सीमित था। 1904 ई. में 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' पारित हुआ, जिसकी सिफारिशें इस प्रकार थीं-
  1. विश्वविद्यालयों को अध्ययन एवं शोध कार्य हेतु प्रोफ़ेसरों एवं लेक्चररों की नियुक्त करनी चाहिए।
  2. प्रयोगशालाओं एवं पुस्तकालयों की स्थापना के साथ विद्यार्थियों में उप-सदस्यों की संख्या कम से कम 50 एवं अधिकतम 100 होनी चाहिए, और इन सदस्यों को सरकार मनोनीति करेगी।
  3. कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में स्थापित विश्वविद्यालयों में चुने हुए सदस्यों की संख्या अधिकतम 20 एवं न्यूनतम 15 होनी चाहिए।
  4. उप-सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होना चाहिए।
इस अधिनियम द्वारा सरकार ने विश्विद्यालय प्रशासन पर अपना नियंत्रण बढ़ा दिया। सीनेट द्वारा लाये गये किसी भी प्रस्ताव पर सरकार को निषेधाधिकार (वीटो) प्राप्त हो गया। सरकार सीनेट के नियमों को परिवर्तित एवं संशोधित करने के साथ ही नये नियम भी बना सकती थी। अशासकीय विद्यालयों या कॉलेजों में सरकारी नियंत्रण कठोर हो गया और महाविद्यालय से सम्बद्धता होना कठिन हो गया। अब विश्वविद्यालयों को यह अधिकार मिल गया कि वे किसी ऐसी 'जो विश्वविद्यालय से संबद्ध होना चाहती है' का निरीक्षण कर उसकी कार्य कुशलता के बाद उसके संबंधन-असंबंधन पर निर्णय ले सकते थे। अधिनियम के द्वारा गवर्नर-जनरल के पास इन विश्वविद्यालयों की क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करने का अधिकार था।
राष्ट्रवादी तत्वों ने इस अनिधियम पर कड़ी आपत्ति जताई। लॉर्ड कर्ज़न की इस नीति के परिणामस्वरूप ही विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए प्रतिवर्ष 5 लाख रुपये 5 वर्ष तक के लिए व्यवस्था की गई। कर्ज़न के समय में कृषि विभाग, पुरातत्व विभाग की स्थापना की गई। कर्ज़न के समय में ही भारत में शिक्षा महानिदेशक की नियुक्ति की गयी। इस स्थान को ग्रहण करने वाला सर्वप्रथम व्यक्ति 'एच.डब्ल्यू. ऑरेन्ज' था। 21 फ़रवरी, 1913 ई. की शिक्षा नीति के सरकारी प्रस्ताव में प्रत्येक प्रांत में एक विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा हुई। गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा की जा रही अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की मांग सरकार ने नकार कर निरक्षरता खत्म करने की नीति को स्वीकार किया। सरकार ने प्रान्तों की सरकारों को प्रोरित किया कि वे समाज के निर्धन एवं अत्यन्त पिछड़े हुए वर्ग को निःशुल्क शिक्षा दिलाने का प्रबंध करें।

भारत में शिक्षा का विकास

सार्जेण्ट योजना

भारत में शिक्षा का विकास

राधा कृष्ण आयोग

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में इस आयोग का गठन 1948 ई. मे किया गया। आयोग को विश्वविद्यालय शिक्षा पर अपनी रिपोर्ट देनी थी। अगस्त, 1949 ई. में आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत किया।
मुख्य सिफारिशें-
शिक्षा से सम्बन्धित आयोग
आयोग वर्ष गवर्नर-जनरल
वुड का घोषणा पत्र 1854 ई. लॉर्ड डलहौज़ी
हन्टर शिक्षा आयोग 1882-1883 ई. लॉर्ड रिपन
सैडलर आयोग 1917-1918 ई. लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड
हार्टोग समिति 1929 ई. लॉर्ड इरविन
सार्जेण्ट योजना 1944 ई. लॉर्ड वेवेल
राधाकृष्णन आयोग 1948 ई. लॉर्ड माउण्ट बेटन
  • विश्वविद्यालय पूर्व 12 वर्ष का अध्ययन।
  • विश्वविद्यालय में कम से कम 180 दिन की पढ़ाई हो। यह समय 11-11 सप्ताहों के तीन भागों में बंटा होना चाहिए।
  • प्रशासनिक सेवाओं के लिए विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि आवश्यक नहीं है।
  • शिक्षा को समवर्ती सूची में रखने का सुझाव।
  • उच्च शिक्षा के तीन मुख्य उद्देश्य- सामान्य शिक्षण, संस्कारी शिक्षण और व्यावसयिक शिक्षण हों।
  • कृषि, वाणिज्य, विद्या, अभियान्त्रिकी तथा प्राविधिक और आयुर्ज्ञान पर अधिक बल होना चाहिए।
  • विश्वविद्यालय की देख-रेख हेतु 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' की स्थापना की जानी चाहिए।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.)

1953 ई. में राधाकृष्णन आयोग की सिफारिशों को क्रियान्वित करने के लिए इस आयोग की स्थापना की गयी। 1956 ई. में संसद के अधिनियम के द्वारा आयोग को स्वायत्ता पूर्ण परिनियम पद दे दिया गया।

भारत में शिक्षा का विकास

कोठारी आयोग

कोठारी आयोग की नियुक्ति जुलाई, 1964 ई. में डॉक्टर डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में की गई थी। इस आयोग में सरकार को शिक्षा के सभी पक्षों तथा प्रकमों के विषय में राष्ट्रीय नमूने की रूपरेखा, साधारण सिद्वान्त तथा नीतियों की रूपरेखा बनाने का सुझाव दिया गया। कोठारी आयोग ने प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्च अर्थात विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये।

प्रमुख सुझाव

कोठारी आयोग भारत का ऐसा पहला शिक्षा आयोग था, जिसने अपनी रिपार्ट में सामाजिक बदलावों के मद्देनज़र कुछ ठोस सुझाव दिए। आयोग के अनुसार समान स्कूल के नियम पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार हो सकती है, जहाँ सभी वर्ग के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के उच्च वर्गों के लोग सरकारी स्कूल से भागकर प्राइवेट स्कूलों का रुख करेंगे और पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी। आयोग ने जो सुझाव दिए, वे निन्मलिखित थे-
  1. शिक्षा के अनिवार्य अंग के रूप में समाज सेवा और कार्य अनुभव, जिसमें हाथ से काम करने तथा उत्पादन अनुभव सम्मिलित हों, आरम्भ किए जाएँ।
  2. माध्यमिक शिक्षा को व्यवासायिक बनाने पर बल दिया गया।
  3. शिक्षा के पुनर्निर्माण में कृषि, कृषि में अनुसंधान तथा इससे सम्बन्धित विज्ञानों को उच्च प्राथमिकता दी जाए।
  4. विश्वविद्यालयों में एक छोटी-सी संस्था ऐसी बनायी जाए, जो उच्चतम अन्तर्राष्ट्रीय मानकों को प्राप्त करने का उद्देश्य रखती हो।

भारत में शिक्षा का विकास

सार्जेण्ट योजना

सार्जेण्ट योजना 1944 ई. में 'केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार मण्डल' ने प्रस्तुत की थी। इस समय अंग्रेज़ अधिकारी 'सार्जेण्ट' ब्रिटिश भारत सरकार में शिक्षा सलाहकार के पद पर नियुक्त था। उसी के नाम से यह 'राष्ट्रीय शिक्षा योजना' प्रस्तुत की गई थी। योजना के अनुसार प्राथमिक विद्यालय एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय स्थापित करने तथा छ: से ग्यारह वर्ष के बच्चों को निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा दिये जान की व्यवस्था की गई।
  • ग्यारह से सत्रह वर्ष के बच्चों के लिए 6 वर्ष का पाठ्यक्रम बनाया गया।
  • दो प्रकार के उच्च विद्यालय- एक विद्या विषयक और दूसरा तकनीकि एवं व्यावसायिक शिक्षा के लिए योजना में शामिल थे।
  • इस योजना में इण्टरमीडियट श्रेणी को समाप्त करने की व्यवस्था की गई थी।
  • 40 वर्ष के अन्दर ही शिक्षा के पुनर्निमाण कार्य को अन्तिम रूप देना था, किंतु इस समय सीमा को घटाकर 16 वर्ष कर दिया गया।
  • 'सार्जेण्ट योजना' के बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया और इसी के साथ भारतीय शिक्षा में ब्रिटिश काल भी समाप्त हो गया।

भारत में शिक्षा का विकास

वर्धा शिक्षा आयोग

वर्धा शिक्षा योजना का सूत्रपात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 1937 ई. में 'वर्धा' नामक स्थान पर हुआ था। गाँधी जी ने वर्धा में अपने हरिजन के अंकों में शिक्षा पर योजना प्रस्तुत की, इसे ही 'वर्धा योजना' कहा गया। इसमें शिक्षा के माध्यम से हस्त उत्पादन कार्यों को महत्त्व दिया गया। इसमें बालक अपनी मातृभाषा के द्वारा 7 वर्ष तक अध्ययन करता था।
  • 1935 ई. के 'भारत सरकार अधिनियम' के अन्तर्गत प्रान्तों में 'द्वैध शासन पद्धति' समाप्त हो गयी।
  • इसके दो साल बाद ही गांधी जी ने 1937 ई. में 'वर्धा शिक्षा योजना' प्रस्तुत की।
  • इस योजना के अन्तर्गत गांधी जी ने अध्यापकों के प्रशिक्षण, पर्यवेक्षण, परीक्षण एवं प्रशासन का सुझाव दिया।
  • योजना में सर्वाधिक महत्व हस्त उत्पादन कार्यों को दिया गया, जिसके द्वारा अध्यापकों के वेतन की व्यवस्था किये जाने की योजना थी।
  • इस योजना में विद्यार्थी को अपनी मातृभाषा में लगभग 7 वर्ष तक अध्ययन करना होता था।
  • यह योजना द्वितीय विश्व युद्ध के कारण खटाई में पड़ गई, परन्तु 1947 ई. के बाद अंग्रेज़ सरकार ने इस पर विचार किया।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

भारत में शिक्षा का विकास

हार्टोग समिति

1929 ई. में 'भारतीय परिनीति आयोग' ने सर फ़िलिप हार्टोग के नेतृत्व में शिक्षा के विकास पर रिपोर्ट हेतु एक सहायक समिति का गठन किया गया। समिति ने प्राथमिक शिक्षा के महत्व की बात की। माध्यमिक शिक्षा के बारे में आयोग ने मैट्रिक स्तर पर विशेष बल दिया। ग्रामीण अंचलों के विद्यालयों को आयोग ने वर्नाक्यूलर मिडिल स्तर के स्कूल पर ही रोक कर उन्हें व्यावसायिक या फिर औद्योगिक शिक्षा देने का सुझाव दिया।

भारत में शिक्षा का विकास

सैडलर आयोग

1917 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय की समस्याओं के अध्ययन के लिए डॉक्टर एम.ई. सैडलर के नेतृत्व में एक आयोग गठित किया गया। इस आयोग में दो भारतीय, डॉक्टर आशुतोष मुखर्जी एवं डोक्टर जियाउद्दीन अहमद सदस्य थे। इस आयोग ने कलकत्ता विश्विद्यालय के साथ-साथ माध्यमिक स्नातकोत्तरीय शिक्षा पर भी अपना मत व्यक्त किया। आयोग ने 1904 ई. के 'विश्विद्यालय अधिनियम' की कड़े शब्दों में निंदा की। आयोग के मुख्य सुझाव थे-
  1. इंटर व उत्तर माध्यमिक परीक्षा को माध्यमिक तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा के मध्य विभाजन रेखा मानना चाहिए।
  2. स्कूली शिक्षा 12 वर्ष की होनी चाहिए।
  3. ऐसी शिक्षण संस्थायें स्थापित करने का सुझाव दिया गया, जो इण्टरमीडिएट महाविद्यालय कहलाये। ये महाविद्यालय चाहे तो स्वतन्त्र रहें या फिर हाई स्कूल से सम्बद्ध हो जायें।

द्वैध शासन-व्यवस्था की अन्तर्गत शिक्षा

माण्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार 1919 के अन्तर्गत शिक्षा विभाग को प्रान्तों एवं लोक निर्वाचित मंत्री के अधीन दे दिया गया। केन्द्र सरकार ने अपने को शिक्षा के उत्तरदायित्व से मुक्त करते हुए शिक्षा के लिए दी जाने वाली केन्द्रीय अनुदान व्यवस्था को बंद कर दिया। इससे प्रान्तीय सरकारों को शिक्षा हेतु अधिक धन उपलब्ध कराने में परेशानी हुई।

सैडलर आयोग का गठन 1917 ई. में 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' की समस्याओं के अध्ययन के लिए डॉक्टर एम.ई. सैडलर के नेतृत्व में किया गया था। इस आयोग में दो भारतीय भी, डॉक्टर आशुतोष मुखर्जी एवं डॉक्टर जियाउद्दीन अहमद, सदस्य थे। इस आयोग ने कलकत्ता विश्विद्यालय के साथ-साथ माध्यमिक स्नातकोत्तरीय शिक्षा पर भी अपना मत व्यक्त किया।

प्रमुख सुझाव

सैडलर आयोग ने 1904 ई. के 'विश्विद्यालय अधिनियम' की कड़े शब्दों में निंदा की। आयोग ने अपने सुझाव भी दिए, जो निम्नलिखित थे-
  1. इंटर व उत्तर माध्यमिक परीक्षा को माध्यमिक तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा के मध्य विभाजन रेखा मानना चाहिए।
  2. स्कूली शिक्षा 12 वर्ष की होनी चाहिए।
  3. ऐसी शिक्षण संस्थायें स्थापित करने का सुझाव दिया गया, जो इण्टरमीडिएट महाविद्यालय कहलायें। ये महाविद्यालय चाहे तो स्वतन्त्र रहें या फिर हाई स्कूल से सम्बद्ध हो जायें।
  4. इन संस्थाओं के प्रशासन हेतु माध्यमिक तथा उत्तर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के निर्माण की सिफारिश की गई।
  5. इण्टरमीडिएट के बाद स्नातक स्तर की शिक्षा तीन वर्ष की होनी चाहिए।
  6. आयोग ने पास तथा ऑनर्स व साधारण तथा प्रवीण्य पाठ्यक्रम शुरू करने का भी सुझाव दिया।
  7. विश्वविद्यालयों को यह सुझाव भी दिया गया था, कि बहुत सख्त नियम न बनाये जायें।
  8. प्राचीन सम्बद्ध विश्वविद्यालयों की जगह पूर्ण स्वायत्त आवासीय एवं एकात्मक स्वरूप के विश्वविद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया गया।
  9. 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' के कार्य के भार को कम करने के लिए आयोग ने ढाका में 'एकाकी विश्वविद्यालय' की स्थापना का सुझाव दिया।
  10. आयोग ने ढाका एवं कलकत्ता विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए शिक्षा विभाग खोलने की सलाह दी।
  11. आयोग ने व्यावसायिक कॉलेज खोलने की ओर भी सरकार का ध्यान खींचा।
  12. 'सैडलर आयोग' के सुझाव पर उत्तर प्रदेश में एक 'बोर्ड ऑफ़ सेंकेडरी एजूकेशन' की स्थापना हुई।

विश्वविद्यालयों की स्थापना

1913 ई. की 'शिक्षा सम्बन्धी नीति' एवं 1917 ई. के 'सैडलर आयोग' के सुझावों के बाद 1916 ई. में 'मैसूर विश्वविद्यालय', 1916 ई. में 'बनारस विश्वविद्यालय', 1917 ई. में 'पटना विश्वविद्यालय', 1918 ई. में 'उस्मानिया विश्वविद्यालय', 1920 ई. में 'अलीगढ़ विश्वविद्यालय' एवं 1921 ई. में 'लखनऊ विश्वविद्यालय' की स्थापना हुई। विश्वविद्यालय के संचालन का जिम्मा प्रांतों का हो गया।

भारत में शिक्षा का विकास

विश्वविद्यालय आयोग व अधिनियम

जब लॉर्ड कर्ज़न भारत का वायसराय बना तो उसने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति की कड़ी आलोचना की। उसने कहा कि 'मैकाले की नीति देशी भाषाओं के विरुद्ध है।' सितम्बर, 1801 ई. में कर्ज़न ने एक सम्मेलन बुलाया, जहाँ उसने भारत में शिक्षा के सभी क्षेत्रों की समीक्षा की बात कही। 1902 ई. में कर्ज़न ने सर टॉमस रो की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग की स्थापना की। इस आयोग में सैयद हुसैन बिलग्रामी एवं जस्टिस गुरुदास बनर्जी सदस्य के रूप में शामिल थे। इस आयोग का उद्देश्य विश्वविद्यालयों की स्थिति का अनुमान लगाना एवं उनके संविधान तथा कार्यक्षमता के बारे में सुझाव देना था। इस आयोग का कार्य क्षेत्र उच्च शिक्षा एवं विश्वविद्यालय तक ही सीमित था। 1904 ई. में 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' विश्वविद्यालय तक ही सीमित था। 1904 ई. में 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' पारित हुआ, जिसकी सिफारिशें इस प्रकार थीं-
  1. विश्वविद्यालयों को अध्ययन एवं शोध कार्य हेतु प्रोफ़ेसरों एवं लेक्चररों की नियुक्त करनी चाहिए।
  2. प्रयोगशालाओं एवं पुस्तकालयों की स्थापना के साथ विद्यार्थियों में उप-सदस्यों की संख्या कम से कम 50 एवं अधिकतम 100 होनी चाहिए, और इन सदस्यों को सरकार मनोनीति करेगी।
  3. कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में स्थापित विश्वविद्यालयों में चुने हुए सदस्यों की संख्या अधिकतम 20 एवं न्यूनतम 15 होनी चाहिए।
  4. उप-सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होना चाहिए।
इस अधिनियम द्वारा सरकार ने विश्विद्यालय प्रशासन पर अपना नियंत्रण बढ़ा दिया। सीनेट द्वारा लाये गये किसी भी प्रस्ताव पर सरकार को निषेधाधिकार (वीटो) प्राप्त हो गया। सरकार सीनेट के नियमों को परिवर्तित एवं संशोधित करने के साथ ही नये नियम भी बना सकती थी। अशासकीय विद्यालयों या कॉलेजों में सरकारी नियंत्रण कठोर हो गया और महाविद्यालय से सम्बद्धता होना कठिन हो गया। अब विश्वविद्यालयों को यह अधिकार मिल गया कि वे किसी ऐसी 'जो विश्वविद्यालय से संबद्ध होना चाहती है' का निरीक्षण कर उसकी कार्य कुशलता के बाद उसके संबंधन-असंबंधन पर निर्णय ले सकते थे। अधिनियम के द्वारा गवर्नर-जनरल के पास इन विश्वविद्यालयों की क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करने का अधिकार था।
राष्ट्रवादी तत्वों ने इस अनिधियम पर कड़ी आपत्ति जताई। लॉर्ड कर्ज़न की इस नीति के परिणामस्वरूप ही विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए प्रतिवर्ष 5 लाख रुपये 5 वर्ष तक के लिए व्यवस्था की गई। कर्ज़न के समय में कृषि विभाग, पुरातत्व विभाग की स्थापना की गई। कर्ज़न के समय में ही भारत में शिक्षा महानिदेशक की नियुक्ति की गयी। इस स्थान को ग्रहण करने वाला सर्वप्रथम व्यक्ति 'एच.डब्ल्यू. ऑरेन्ज' था। 21 फ़रवरी, 1913 ई. की शिक्षा नीति के सरकारी प्रस्ताव में प्रत्येक प्रांत में एक विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा हुई। गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा की जा रही अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की मांग सरकार ने नकार कर निरक्षरता खत्म करने की नीति को स्वीकार किया। सरकार ने प्रान्तों की सरकारों को प्रोरित किया कि वे समाज के निर्धन एवं अत्यन्त पिछड़े हुए वर्ग को निःशुल्क शिक्षा दिलाने का प्रबंध करें।

भारत में शिक्षा का विकास

हन्टर शिक्षा आयोग

  1. हाई स्कूल स्तर पर दो प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था हो, जिसमें एक व्यवसायिक एवं व्यापारिक शिक्षा दिये जाने पर बल दिया जाये तथा दूसरी ऐसी साहित्यिक शिक्षा दी जाय, जिससे विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु सहायता मिले।
  2. प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के महत्व पर बल एवं स्थानीय भाषा तथा उपयोगी विषय में शिक्षा देने की व्यवस्था की जाये।
  3. शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों का स्वागत हो, लेकिन प्राथमिक शिक्षा उसके बगैर भी दी जाये।
  4. प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का नियंत्रण ज़िला व नगर बोर्डों को सौंप दिया जाये।
हन्टर शिक्षा आयोग की स्थापना ब्रिटिश शासनकाल में लॉर्ड रिपन (1880-1884 ई.) द्वारा 1882 ई. में की गई थी। चार्ल्स वुड के घोषणा पत्र द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति की समीक्षा के लिए सरकार ने विलियम विलसन हन्टर की अध्यक्षता में इस आयोग की नियुक्ति की थी। इस आयोग में आठ भारतीय सदस्य भी थे। 'हन्टर शिक्षा आयोग' को प्राथमिक शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा की समीक्षा तक ही सीमित कर दिया गया था।

आयोग के सुझाव

'हन्टर शिक्षा आयोग' ने जो महत्वपूर्ण सुझाव दिए, वे निम्नलिखित थे-
  1. हाई स्कूल स्तर पर दो प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था हो, जिसमें एक व्यवसायिक एवं व्यापारिक शिक्षा दिये जाने पर बल दिया जाये तथा दूसरी ऐसी साहित्यिक शिक्षा दी जाये, जिससे विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु सहायता मिले।
  2. प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के महत्व पर बल एवं स्थानीय भाषा तथा उपयोगी विषय में शिक्षा देने की व्यवस्था की जाये।
  3. शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयासों का स्वागत हो, लेकिन प्राथमिक शिक्षा उसके बगैर भी दी जाये।
  4. प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का नियंत्रण ज़िला व नगर बोर्डों को सौंप दिया जाये।

शिक्षा में सुधार

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकार से अनुरोध किया गया कि वह इन संस्थाओं पर अपने नियंत्रण के अधिकार को वापस ले ले। आयोग ने महिला शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण चिन्ता व्यक्त की। आयोग के सुझाव के बाद माध्यमिक एवं कॉलेज स्तर की शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन आये। 1882 ई. में पंजाब एवं 1887 ई. में 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' की स्थापना हुई। 1882 से 1902 ई. के मध्य शिक्षा के क्षेत्र में हुए विस्तार को निम्नलिखित आंकड़ों से देखा जा सकता है-
  1. 1881-1882 ई. में जहाँ माध्यमिक पाठशालाओं की संख्या 3,916 थी, वहीं 1901-1902 ई. में यह बढ़कर 5,124 हो गई।
  2. इन पाठशालाओं में छात्रों की संख्या, जो 1881-1882 ई. में 2,14,077 थी, 1901-1902 ई. में बढ़कर 4,90,129 हो गई।
  3. व्यवसायिक एवं तकनीक कॉलेजों की संख्या, जो 1881-1882 ई. में मात्र 72 थी, 1901-1902 ई. में बढ़कर 191 हो गई।

भारत में शिक्षा का विकास

वुड का घोषणा-पत्र

1855 ई. में 'लोक शिक्षा विभाग' की स्थापना हुई। बम्बई, मद्रास एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय 1857 ई. में अस्तित्व में आये। 1847 ई. से पूर्व भारत में कुल 19 विश्वविद्यालय थे।
                                               
वुड घोषणा पत्र 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' के प्रधान चार्ल्स वुड द्वारा 19 जुलाई, 1854 को जारी किया गया था। इस घोषणा पत्र में भारतीय शिक्षा पर एक व्यापक योजना प्रस्तुत की गई थी, जिसे 'वुड का डिस्पैच' कहा गया। 100 अनुच्छेदों वाले इस प्रस्ताव में शिक्षा के उद्देश्य, माध्यम, सुधारों आदि पर विचार किया गया था।

उद्देश्य

इस घोषण पत्र को भारतीय शिक्षा का 'मैग्ना कार्टा' भी कहा जाता है। प्रस्ताव में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार को सरकार ने अपना उदद्देश्य बनाया। उच्च शिक्षा को अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से दिये जाने पर बल दिया गया, परन्तु साथ ही देशी भाषा के विकास को भी महत्व दिया गया। ग्राम स्तर पर देशी भाषा के माध्यम से अध्ययन के लिए लिए प्राथमिक पाठाशालायें स्थापित हुईं और इनके साथ ही ज़िलों में हाईस्कूल स्तर के 'एंग्लो-वर्नाक्यूलर' कालेज खोले गये। घोषणा-पत्र में सहायता अनुदान दिये जाने पर बल भी दिया गया था।

विश्वविद्यालय की स्थापना

प्रस्ताव के अनुसार 'लन्दन विश्वविद्यालय' के आदेश पर कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास में एक-एक विश्वविद्यालय की स्थापना की व्यवस्था की गई, जिसमें एक कुलपति, उप-कुलपति, सीनेट एवं विधि सदस्यों की व्यवस्था की गई। इन विश्वविद्यालयों को परीक्षा लेने एवं उपाधियाँ प्रदान करने का अधिकार होता था। तकनीकि एवं व्यावसायिक विद्यालयों की स्थापना के क्षेत्र में भी इस घोषणा पत्र में प्रयास किया गया। 'वुड डिस्पैच' की सिफ़ारिश के प्रभाव में आने के बाद 'अधोमुखी निस्यंदन सिद्धान्त' समाप्त हो गया।


भारत में शिक्षा का विकास

आंग्ल-प्राच्य विवाद

लोक शिक्षा के लिए स्थापित सामान्य समिति के दस सदस्यों में दो दल बन गये थे। एक आंग्ल या पाश्चात्य विद्या का समर्थक था, तो दूसरा प्राच्य विद्या का। प्राच्य विद्या के समर्थकों का नेतृत्व लोक शिक्षा समिति के सचिव एच.टी. प्रिंसेप ने किया, जबकि इनका समर्थन समिति के मंत्री एच.एच. विल्सन ने किया। प्राच्य विद्या के समर्थकों ने वारेन हेस्टिंग्स और लॉर्ड मिण्टो की शिक्षा की नति का समर्थन करते हुए संस्कृत और अरबी भाषा के अध्ययन का समर्थन किया। इन्होंने हिन्दुओं एवं मुस्लिमों के पुराने साहित्य के पुनरुत्थान को अधिक महत्त्व दिया। प्राच्य दल के लोग विज्ञान के अध्ययन को महत्व देते थे, परन्तु वे इसका अध्ययन ऐसी भाषा में करना चाहते थे, जो आम भारतीय के लिए सहज हो। साथ ही ये देशी उच्च शिक्षण संस्थाओं की सुरक्षा की भी मांग करते थे।
दूसरी ओर आंग्ल या पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों का नेतृत्व मुनरो एवं एलफ़िन्स्टन ने किया। इस दल का समर्थन लॉर्ड मैकाले ने भी किया। इस दल को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नवयुवक अधिकारियों एवं मिशनरियों का भी समर्थन प्राप्त था। ये अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार करना एवं औद्योगिक क्रान्ति के लाभों से भारतीय जनमानस को परिचित कराना चाहते थे। मैकाले भारतीयों में पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के साथ-साथ एक ऐसे समूह का निर्माण करना चाहता था, जो रंग एवं रक्त से भारतीय हो, पर विचारों, रुचि एवं बुद्धि से अंग्रेज़ हो। भारत के रीति-रिवाज एवं साहित्य के विषय में मैकाले का कहना था कि 'यूरोप के एक अच्छे पुस्तकाल की एक आलमारी का तख्ता, भारत और अरब के समस्त साहित्य से अधिक मूल्यवान है।' कार्यकारिणी के सदस्य की हैसियत से 2 फ़रवरी, 1835 ई. को मैकाले ने महत्वपूर्ण स्मरणार्थ लेख परिषद के समक्ष प्रस्तुत किया, जिसे तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने पूरी तरह स्वीकार किया। लॉर्ड मैकाले प्रस्ताव के अनुसार कम्पनी सरकार को यूरोप के साहित्य का विकास अंग्रेज़ी भाषा के द्वारा करना था। साथ ही भविष्य में धन का व्यय इसी पर किया जाना था। मैकाले ने भारतीय संस्कृति की उपेक्षा करते हुए उसे 'अंधविश्वासों का भण्डार' बताया।

अधोमुखी निस्यंदन सिद्धान्त

'अधोमुखी निस्यंदन सिद्धान्त', जिसका अर्थ था- शिक्षा समाज के उच्च वर्ग को दी जाये। इस वर्ग से छन-छन कर ही शिक्षा का असर जन-सामान्य तक पहुँचे, को सर्वप्रथम सरकारी नीति के रूप में लॉर्ड ऑकलैण्ड ने लागू किया। 'वुड डिस्पैच' के पहले तक इस सिद्धान्त के तहत भारतीयों को शिक्षित किया गया।

भारत में शिक्षा का विकास

भारत में शिक्षा के प्रति रुझान प्राचीन काल से ही देखने को मिलता है। प्राचीन काल में गुरुकुलों, आश्रमों तथा बौद्ध मठों में शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था होती थी। तत्कालीन शिक्षा केन्द्रों में नालन्दा, तक्षशिला एवं वल्लभी की गणना की जाती है। मध्यकालीन भारत में शिक्षा मदरसों में प्रदान की जाती थी। मुग़ल शासकों ने दिल्ली, अजमेर, लखनऊ एवं आगरा में मदरसों का निर्माण करवाया। भारत में आधुनिक व पाश्चात्य शिक्षा की शुरुआत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन काल से हुई।
                                                       

शिक्षण संस्थाओं की स्थापना

सर्वप्रथम 1781 ई. में बंगाल के गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने फ़ारसी एवं अरबी भाषा के अध्ययन के लिए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में एक मदरसा खुलवाया। 1784 ई. में हेस्टिंग्स के सहयोगी सर विलियम जोन्स ने 'एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल' की स्थापना की, जिसने प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन हेतु महत्वपूर्ण प्रयास किया। 1791 ई. में ब्रिटिश रेजिडेंट डंकन ने बनारस में एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना करवायी। प्राच्य विद्या के क्षेत्र में किये गये ये शुरुआती प्रयास सफल नहीं हो सके। ईसाई मिशनरियों ने कम्पनी सरकार के इस प्रयास की आलोचना की और पाश्चात्य साहित्य के विकास पर बल दिया।
लॉर्ड वेलेज़ली ने 1800 ई. में गैर-सैनिक अधिकारियों की शिक्षा हेतु 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' की स्थापना की। कुछ कारणों से इसे 1802 ई. में बंद कर दिया गया। 1813 ई. के चार्टर एक्ट में सर्वप्रथम भारतीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए एक लाख रुपये की व्यवस्था की गई, जिसको भारत में साहित्य के पुनरुद्धार तथा विकास के लिए एवं स्थानीय विद्वानों को प्रोत्साहन देने के लिए ख़र्च करने की व्यवस्था की गयी। अगले 40 वर्षों में महत्वपूर्ण विवाद निम्न विषयों पर था-
  1. शिक्षा की नीति का लक्ष्य
  2. शिक्षा का माध्यम
  3. शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था एवं शिक्षा प्रणाली
उस समय लोगों में शिक्षा प्रसार के लिए दो विचारधारायें सामने आयीं। पहली विचारधारा के अनुसार, शिक्षा के अधोमुखी निस्यंदन सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ। इस सिद्धान्त के अंतर्गत शिक्षा को उच्च वर्गों के माध्यम से निम्न वर्गों तक पहुँचाने की बात कही गयी, जबकि दूसरी विचारधारा के तहत् जनसामान्य तक शिक्षा को प्रचार-प्रसार के लिए कम्पनी को प्रत्यक्ष रूप से प्रयत्नशील रहने के लिए कहा गया।       

हे शारदे मातेश्वरी ।


सरस्वती वंदना

 

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

सरस्वतैय नम :





 

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