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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

भारत में शिक्षा का विकास

विश्वविद्यालय आयोग व अधिनियम

जब लॉर्ड कर्ज़न भारत का वायसराय बना तो उसने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति की कड़ी आलोचना की। उसने कहा कि 'मैकाले की नीति देशी भाषाओं के विरुद्ध है।' सितम्बर, 1801 ई. में कर्ज़न ने एक सम्मेलन बुलाया, जहाँ उसने भारत में शिक्षा के सभी क्षेत्रों की समीक्षा की बात कही। 1902 ई. में कर्ज़न ने सर टॉमस रो की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग की स्थापना की। इस आयोग में सैयद हुसैन बिलग्रामी एवं जस्टिस गुरुदास बनर्जी सदस्य के रूप में शामिल थे। इस आयोग का उद्देश्य विश्वविद्यालयों की स्थिति का अनुमान लगाना एवं उनके संविधान तथा कार्यक्षमता के बारे में सुझाव देना था। इस आयोग का कार्य क्षेत्र उच्च शिक्षा एवं विश्वविद्यालय तक ही सीमित था। 1904 ई. में 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' विश्वविद्यालय तक ही सीमित था। 1904 ई. में 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' पारित हुआ, जिसकी सिफारिशें इस प्रकार थीं-
  1. विश्वविद्यालयों को अध्ययन एवं शोध कार्य हेतु प्रोफ़ेसरों एवं लेक्चररों की नियुक्त करनी चाहिए।
  2. प्रयोगशालाओं एवं पुस्तकालयों की स्थापना के साथ विद्यार्थियों में उप-सदस्यों की संख्या कम से कम 50 एवं अधिकतम 100 होनी चाहिए, और इन सदस्यों को सरकार मनोनीति करेगी।
  3. कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में स्थापित विश्वविद्यालयों में चुने हुए सदस्यों की संख्या अधिकतम 20 एवं न्यूनतम 15 होनी चाहिए।
  4. उप-सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होना चाहिए।
इस अधिनियम द्वारा सरकार ने विश्विद्यालय प्रशासन पर अपना नियंत्रण बढ़ा दिया। सीनेट द्वारा लाये गये किसी भी प्रस्ताव पर सरकार को निषेधाधिकार (वीटो) प्राप्त हो गया। सरकार सीनेट के नियमों को परिवर्तित एवं संशोधित करने के साथ ही नये नियम भी बना सकती थी। अशासकीय विद्यालयों या कॉलेजों में सरकारी नियंत्रण कठोर हो गया और महाविद्यालय से सम्बद्धता होना कठिन हो गया। अब विश्वविद्यालयों को यह अधिकार मिल गया कि वे किसी ऐसी 'जो विश्वविद्यालय से संबद्ध होना चाहती है' का निरीक्षण कर उसकी कार्य कुशलता के बाद उसके संबंधन-असंबंधन पर निर्णय ले सकते थे। अधिनियम के द्वारा गवर्नर-जनरल के पास इन विश्वविद्यालयों की क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करने का अधिकार था।
राष्ट्रवादी तत्वों ने इस अनिधियम पर कड़ी आपत्ति जताई। लॉर्ड कर्ज़न की इस नीति के परिणामस्वरूप ही विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए प्रतिवर्ष 5 लाख रुपये 5 वर्ष तक के लिए व्यवस्था की गई। कर्ज़न के समय में कृषि विभाग, पुरातत्व विभाग की स्थापना की गई। कर्ज़न के समय में ही भारत में शिक्षा महानिदेशक की नियुक्ति की गयी। इस स्थान को ग्रहण करने वाला सर्वप्रथम व्यक्ति 'एच.डब्ल्यू. ऑरेन्ज' था। 21 फ़रवरी, 1913 ई. की शिक्षा नीति के सरकारी प्रस्ताव में प्रत्येक प्रांत में एक विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा हुई। गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा की जा रही अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की मांग सरकार ने नकार कर निरक्षरता खत्म करने की नीति को स्वीकार किया। सरकार ने प्रान्तों की सरकारों को प्रोरित किया कि वे समाज के निर्धन एवं अत्यन्त पिछड़े हुए वर्ग को निःशुल्क शिक्षा दिलाने का प्रबंध करें।

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