क्रांतिकारी कवि दुष्यंत
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई
गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी
कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव
में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद
नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे
सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
कवि परिचय : जन्म : 01 सितम्बर 1933.
शिक्षा : एम.ए. हिन्दी, इलाहाबाद विश्वविध्यालय.
कृतित्व : कविता संग्रह- सूर्य का स्वागत, आवाजों के
घेरे, जलते हुए वन का वसंत ।
काव्य नाटिका : एक कंठ विषपायी ।
गजल संग्रह : साये में धूप ।
निधन : 30 दिसम्बर 1975 ।
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अच्छी रचना
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