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गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

नव सत्रारम्भ पर शाला प्रवेशोत्सव

         शाला प्रवेशोत्सव नव सत्र 2013 - 2014


                      ==: प्रवेशोत्सव एक मई 2013 से : ==
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नव शैक्षिक सत्र का आरम्भ प्रथम मई 2013 से होगा । शिक्षा परिवेश से वँचित छात्र छात्राओं को विध्यालय की दहलीज तक लानें के लिए इस सत्र में प्रवेशोत्सव दो चरणों में मनाया जाएगा । शिक्षा विभाग राजस्थान सरकार के आदेशानुसार इसका प्रथम चरण 1 मई से 14 मई तक चलेगा तथा ग्रीष्मावकाश के पश्चात द्वितीय चरण 1 जुलाई से 16 जुलाई तक चलेगा । इन उत्सवी अभियानों में अध्यापक अपनें क्षेत्र में घर घर जाकर अभिभावकों से संपर्क करेंगे । जिन अभिभावकों के बच्चे किसी न किसी कारणवश अभी तक विध्यालयों से नहीं जुड़े हैं उनके साथ सम्पर्क कर बच्चों को विध्यालयी शिक्षा तंत्र से जोड़नें के लिए प्रेरित किया जाएगा । सभी का यथा संभव प्रयास यही रहेगा कि एक भी बालक या बालिका शिक्षा से वँचित नहीं रह जाए । सरकारी विध्यालयों में कक्षा प्रथम् से सीनियर सैकण्डरी कक्षाओं के छात्र छात्राओं को दी जानें वाली अनेकानेक सुविधाओं से अभिभावकों को अवगत करवाया जाएगा। निशुल्क पाठ्य पुस्तकें, छात्रवृतियाँ, निशुल्क साईकिल्स इत्यादि विभिन्न योजनाओं की जानकारी प्रदान कर विध्यार्थियों को शिक्षा के प्रति जागरूक बनाया जाएगा ।।।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

श्री महावीर जयंती : 23 अप्रैल 2013

              श्री महावीर स्वामी जयंती

आज का दिवस सम्पूर्ण राष्ट्र में महावीर स्वामी की जयंती के रुप में मनाया जा रहा है। जैन परम्परा में मान्यता है कि महावीर 24 वें तीर्थंकर थे अस्तु महावीर जैनधर्म के प्रवर्तक नहीं होकर परिमार्जक है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ या आदिस्वामी अथवा ऋषभ देव से इस सृष्टि का आरम्भ माना जाता है जिनका अवतरण अयोध्या में हुआ था ।महावीर से पूर्व के 23 तीर्थंकरों का समय समय पर इस धरा पर अवतरण हुआ है। 23 वें तीर्थंकर काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र पार्श्वनाथ थे जिनका जीवन महावीर से ठीक 100 वर्ष पूर्व माना जाता है। महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को ईसा पूर्व षष्ठमी सदी में हुआ था । माना जाता है कि आपके माता पिता निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के थे
जो कि महावीर के पूर्व का जैन विचार धर्म था । पार्श्व नाथ के शिष्यों को निर्ग्रन्थवादी कहा जाता था जिसका शाब्दिक तात्पर्य है बँधन मुक्त। महावीर स्वामी को हम परिमार्जकइस दृष्टि से भी मान सकते हैं क्योंकि अपनी 12 वर्षीय कठोर तप साधना के पश्चात जो कैवल्य ( परम् ज्ञान) प्राप्त किया था उसके अनुसार उन्होनें मानव जीवन में पाँच आर्य सत्यों को अपनाना पाप मुक्ति के लिए आवश्यक घोषित किया था । उन्होनें निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय
के चार आर्य सिद्धान्तों ...सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, एवम् अस्तेय में पाँचवाँ सिद्धान्त ब्रह्मचर्य और जोड़ा था । अहिंसा की अति सूक्ष्म एवम् सार्वभौमिक व्याख्या महावीर की महानतम देन है। उनके स्याद्ववाद, महाव्रत, अणुव्रत , त्रिरत्न आदि की विचारधारा के समागम से निर्ग्रन्थ समुदाय और भी अधिक गहराई से आध्यात्म के लक्ष्य तक पहुँचा। महावीर स्वामी का मूल नाम वर्द्धमान थातथापि इनके सर्व प्रचलित नाम निम्न रहे हैं --

    1.निगंठ्ठ नाट्पुत्त - समकालीन बौद्ध साहित्य में जो कि अधिकाँशत:
                              पाली भाषा में रचित है में महावीर को निगंठ्ठ 
                              अर्थात निर्ग्रन्थ नात्तपुत्र के उपाख्य से 
                              उल्लेखित किया गया है।
    2. केवलिन् -         वर्द्धमान नें 30 वर्ष की अवस्था में सन्यास ग्रहण

                              कर अगले 12वर्ष घोर तप साधना में व्यतीत 
                              किए अंतत: ऋजुपालिका नदी के तट पर समघा 
                              नामक आर्य के आवास के समीप के पीपल वृक्ष के
                              नीचे परम् ज्ञान को प्राप्त किया था जिसे कैवल्य 
                              कहा जाता है, कैवल्य की प्राप्ति के कारण ये 
                              केवलिन्  भी कहलाए।
    3. महावीर -           इन्होनें अपना साधना समयावधि में अनेकानेक

                              शारीरिक, मानसिक, दैहिक, आंतरिक एवम् 
                              बाहरी कष्टों, आतपों, अत्याचारों का दृढ़ता पूर्वक 
                              सामना किया। साधना पथ पर एक क्षण मात्र भी 
                              उनका मन एवम् चित्त आड़ोलित या विचलित 
                              नहीं हुआ जो कि मानव की वास्तविक वीरता है, 
                              अस्तु इन्हें महावीर के उपाख्य नाम से जाना गया
                              जो कि इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम है।
     4. जिन् -            यह प्राकृत भाषा का शब्द है जिसका तात्पर्य है 

                             जीतनें वाला या विजेता । महावीर नें तप साधना
                             से न केवल पाप मुक्ति प्राप्त कर ली अपितु 
                             मानव समाज को भी जन्म मरण के चक्र से 
                             विमुक्ति का ऎक व्यवहारिक जीवन सिद्धान्त 
                             प्रदान किया था। उन्होनें मन की विकृतियों पर 
                            विजय प्राप्त कर ली थी अत: वे जिन् भी कहलाए।
                             साथ ही यहीं से प्रारम्भ होता है निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय 
                             का नवीन नाम - जैन । जो जिन् अर्थात विजेता 
                             के  अनुयायी बनें वे जैनी कहलाए ।
    5. सन्मति -    बाल्यकाल में महावीर महल के आँगन में खेल रहे थे। 

                        तभी आकाशमार्ग से संजय मुनि और विजय मुनि का 
                        निकलना हुआ। दोनों इस बात की तोड़ निकालने में 
                        लगे थे कि सत्य और असत्य क्या है? उन्होंने जमीन 
                        की ओर देखा तो नीचे महल के प्राँगण में खेल रहे
                       दिव्य शक्तियुक्त अद्‍भुत बालक को देखकर वे नीचे 
                       आएँ और सत्य के साक्षात दर्शन करके उनके मन की 
                       शंकाओं का समाधान हो गया है। इन दो मुनियों ने 
                       उन्हें 'सन्मति' का नाम दिया और खुद भी उन्हें उसी 
                       नाम से पुकारने लगे।
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                                 =: जिनवाणी :=
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                         काम क्रोध तजि छोड़ी माया, 
                         क्षण में मान कषाय भगाया ।।
                         रागी  नहीं,  नहीं तू है द्वेषी, 

                         वीतराग तू  है हित उपदेशी ।।
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                          एक सहस वसु तुमरे नामा, 
                        जन्म लियो कुण्डलपुर धामा।।
                         सिद्धारथ नृप सुत कहलाए, 

                         त्रिशला मात उदर प्रगट भए।।
                       तुम जनमत भयो लोक अशोका, 
                        अनहद शब्द भयो तिहुँ लोका।।
                        इन्द्र ने नेत्र सहस्र करि देखा, 

                        गिरी सुमेर कियो अभिषेखा ।।

सनातन जीवन दर्शन : गृहस्थाश्रम

                   सनातन समाज एवम् मानव जीवन प्रबंधन

                                                                                गृहस्थाश्रम

गत पोस्ट में हमनें ब्रह्मचर्य आश्रम में बालक से युवापन के विकास तक का क्रम देखा था, आज हम सनातन जीवनधारा के द्वितीय चरण पर सतही दृष्टिपात करते हैं जो "गृहस्थ आश्रम" से सम्बोधित किया जाता है। सनातन जीवन दर्शन में प्रत्येक पुरुष (नर एवम् नारी) के लिए चार पुरुषार्थों की प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है - काम, अर्थ, धर्म एवम् मोक्ष। इनमें से प्रथम दो की प्राप्ति गृहस्थाश्रम में ही सुनिश्चित की गई हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति के पश्चात जब ज्ञान प्राप्ति का उपागम समाप्त हो जाता था तब युवक एवम् युवतियाँ "समापवर्तन संस्कार" के पश्चात् अपनें माता पिता के सानिध्य में घर लौट आते थे। ज्ञात रहे सूत्र एवम् स्मृति साहित्य के रचनाकाल से पूर्व तक कन्याओं को भी यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात गुरू आश्रम में अध्ययनार्थ भेजा जाता था जहाँ उनका पृथक शिक्षणालय होता था और गुरु माताएँ कन्याओं को शिक्षा प्रदान करती थी। शिक्षा समाप्ति एवम् दीक्षांत के पश्चात युवक युवतियों के जीवन का अगला चरण प्रारम्भ होता था ।
                     प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जीवन के अगामी पच्चीस वर्ष से पचास वर्ष तक  की आयु का  समय गृहस्थ आश्रम है जिस में उन्हें शास्त्रानुसार विधियों के अनुगत पाणिग्रहण संस्कार के माध्यम से विवाह करना अनिवार्य था। व्यवहारिक तौर पर में तो अविवाहित रहना तथा संतान हीन होनें को अप्राकृतिक एवं अपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता था । नियम यह प्रचलित था कि प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है कि वह ईश्वर की सृष्टि कि निरन्तरता बनाये रखने में अपना योगदान दे। अपनी संतान उत्पन्न कर के उस का समाज हित के लिये पालन पौषण और प्रशिक्षित करे, संतान को उत्तम संस्कारवान बनाए। सनातन जीवन दर्शन में प्रत्येक गृहस्थ पर तीन ऋणों की बात कही गई है जिनसे मुक्त होना अति आवश्यक है :
1.देव ऋण 2. ऋषि ऋण।3.पितृ ऋण ।इन ऋणरुपी उत्तरदायित्तवों को निभाने अथवा निपटानें के लिये धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन भी करे। एक शास्त्रीय आजीविका का स्त्रोत हमारी अर्थ कामनाओं की पूर्ति हेतु आवश्यक है। अर्थ के माध्यम से गृहस्थ न केवल तीन शाश्वत ऋणों सॆ मुक्त होता था अपितु दैनिक पंच यज्ञों को भी भली भाँति सम्पादित निष्पादित करता था। गृहस्थ आश्रम सनातन समाज की आधारशिला है जिस के सहारे हम ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम तथा पर्यावरण के सभी अंग निर्वाह करते हैं। ऐकान्त स्वार्थी जीवन जीने के बजाये मानवों को गृहस्थियों का तरह अपने कर्मों द्वारा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये पाँच दैनिक यज्ञ करने चाहियें। अपनें विवाहोपरांत सन्तान उत्पति अनिवार्य थी क्योंकि सनतानोत्पति के पश्चात हम पितृ ऋण अर्थात माता पिता के ऋण से विमुक्त हो जाएंगे। सनातन जीवन दर्शन में सर्वाधिक पवित्र एवम् कल्याणकारी जीवन चरण गृहस्थ जीवन को ही माना गया है । यहाँ तक की विष्णु के सर्व लोकप्रिय अवतारी स्वरुप श्री राम एवम् श्री कृष्ण भी नियमबद्ध गृहस्थ थे। गृहस्थ जीवन चरण में प्रत्येक गृहस्थी को नैमेत्तिक अर्थात नियमित रुप से प्रतिदिन पाँच यज्ञ करनें अनिवार्य थे , जिनका उल्लेख निम्न है : ---
1. देव यज्ञ - प्रत्येक प्राणी प्रतिदिन प्रकृति से कुछ ना कुछ लेता है
अतः सभी का कर्तव्य है कि जो कुछ लिया है उस की ना केवल
भरपाई की जाये अपितु प्रकृतिक संसाधनों में वृद्धि भी की जाये।
पेड़-पौधों को जल, खाद देना तथा नये पेड़ लगाना और इसी प्रकार
के अन्य कार्य इस क्षेत्र में आते हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए
प्रत्येक गृहस्थी को नित्य स्वेच्छा से योगदान देना चाहिये।
2.पितृ यज्ञ – सनातन समाज में अपने से आयु में बड़ों का सदैव
आदर सम्मान किया जाता है। जीवन हमारे पूर्वजों की देन है अस्तु
हमारा यह परम् कर्त्तव्य है कि हम अपने माता पिता तथा सभी
पूर्वजों के प्रति अपनी कृतज्ञता सदैव प्रगट करते रहे तथा अपने माता
पिता तथा अन्य वयोवृद्धों की सेवा सुश्रुषा और सहायता करे।
3. ब्रह्म यज्ञ – गुरुजनों को आदर सत्कार देना भारतीय समाज की
पुरातन परम्परा है। गुरु जन जिज्ञासु विद्यार्थियों को विध्या दान
देते थे । गृहस्थियों का कर्तव्य है कि वह अपने आस पास के गुरुजनों,
बुद्धिजीवियों की निजि आवश्यकताओं की आदर पूर्वक पूर्ति करें
क्योंकि जिस विध्या के सहारे गृहस्थी जीविका कमाते हैं वह गुरुजनों
ने उन्हें दानस्वरूप दी थी। गुरु के ऋण से मुक्ति हेतु निर्धन बालकों
की शिक्षा व्यवस्था अति लाभकारी ब्रह्म यज्ञ है।

4. नृ यज्ञ – इस यज्ञ का उद्देष्य समाज तथा मानव कल्याण है। इस
यज्ञ  में अपने आस पास स्वच्छता और सुरक्षा रखना, समाज में भाईचारे
को बढ़ावा देना तथा त्यौहारों को सामूहिक तौर से मनाना आदि शामिल
है जिस से समाज में सम्वेदन शीलता, सदभावना, कर्मनिष्ठा तथा
देशप्रेम को बढ़ावा मिलता है। अपनें आवास पर आए अतिथि की
निस्वार्थ सेवा इस यज्ञ का सबसे कल्याणकारी कर्म है। अतिथि देवो
भव का आधार मानव जीवन का यह नृ यज्ञ ही है।
5. भूत यज्ञ -  इस यज्ञ का उद्देष्य पशु-पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति
संवेदनशीलता रखना है। मानव रुप में हम धरा के श्रेष्ठतम प्राणी हैं
अस्तु इतर प्राणियों के प्रति दया , सुरक्षा तथा संरक्षण का भाव इस यज्ञ
में अपेक्षित है। चींटियों, श्वानों, गौओं के लिए खाध्य का अंशदान ही
भूत यज्ञ है। वस्तुत: सम्पूर्ण चराचर की सेवा ही इस यज्ञ का मूल
भाव है।
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विश्व पृथ्वी दिवस : 22 अप्रैल 2013

                             विश्व पृथ्वी दिवस

22 अप्रैल : विश्व पृथ्वी दिवस :
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साठ के दशक के के अंतिम काल में प्रकृति पर बढ़ते मानवीय अतिक्रमण और प्रदूषण के कारण से बढ़ती ग्लोबल वॉर्मिंग तथा ग्रीन हाऊस प्रभाव से घटते ऑजोन स्तर के निमित्त विश्व स्तर पर सुद्धिजनों का चिंतन मनन् प्रारम्भ हो गया था। आज ग्लोबल वार्मिंग यानी पृथ्वी के बढ़ते औसत तापमान से हो रहा जलवायु परिवर्तन पृथ्‍वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है। 22 अप्रैल, 1970 को पहली बार इस उद्देश्य से पृथ्वी दिवस मनाया गया था कि लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके। विश्व पृथ्वी दिवस की स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन (Gaylord Nelson) के द्वारा 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गयी थी। हमारे राष्ट्र की 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी पर्यावरण अध्ययन विषय को विशेष रूप से प्रारम्भ किया गया था । 1970 से 1990 तक यह आन्दोलन संपूर्ण विश्व में विस्तारित हो गया । 1990 से इसे अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी दिवस के रुप में मनाया जाने लगा और 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने भी 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस के रुप में मनाने की घोषणा कर दी, तब से यह विश्व समुदाय का स्वजागरुकता दिवस बन गया है ।
भारतीय सनातन परम्परा में हजारों वर्ष पूर्व ही इस तथ्य की महत्ता को ऋषि मुनियों नें समझ परख लिया था । ऋग्वेद में पृथ्वी को ...माता: पृथ्यवा अहम् पुत्राभ्याम् की अवधारणा के तहत धरा को शाश्वत मातेश्वरी स्वीकार किया गया है । इस धरा पर विध्यमान सकल चराचर का सम्बन्ध मानव सहित प्रत्येक प्राणी यहाँ तक की जड़ प्रदार्थों के साथ स्थापित करनें के लिए ही वसुधैव कुटुम्बकम् की महान् विचारधारा को जन्म दिया गया था । सनातन परम्पराओं में वृक्षादि की पूजा का प्रचलन कोई मति जड़ता का नहीं अपितु हजारों वर्ष पूर्व भारतीय मनीषियों की पर्यावरण जागरूकता का प्रतीक है। प्रत्येक वृक्ष, पादप, लता आदि में किसी न किसी देवता अथवा देवी का आवास बतानें का औचित्य पर्यावरण सुरक्षा एवम् संवर्धन की वैज्ञानिक विचारधारा से है। वेदादि साहित्य में पीपल को भगवान विष्णु का आवासीय प्रतीक घोषित कर प्रात:काल उसकी पूजा अर्चना का विधान जो मनीषियों नें रचा था उसका हेतुक पश्चिमी विज्ञान जगत को अब ज्ञात हुआ है कि धरा पर यही एक मात्र वृक्ष है जो अति मद्धिम प्रकाश में भी प्रकाश संष्लेष्ण करनें में सक्षम है जिसके कारण यह वृक्ष 24 घण्टे याकि जीवन पर्यन्त ऑक्सीजन प्रदान करता है । गीतोपदेश में श्री कृष्ण नें अर्जुन से कहा था ....वृक्षाणाम् अश्वथ:...अर्थात वृक्षों में मैं अश्वथ यानि पीपल हूँ । जीवों के प्रति दयाभाव, उन्हें भी देवी देवताओं के वाहन ठहरानें के पीछे कारण जैवीय चक्र की सुरक्षा तथा पारस्थितिकी संतुलन की सतता था। वैज्ञानिक खाध्य श्रृंखला के सभी घटकों की सुरक्षा का भारतीय आध्यात्मिक दृष्टिकोण विश्व की अन्य किसी भी विचारधारा से अतुलनीय है ।वर्तमान संदर्भ में यह सभी दैन्यचर्या के कार्य बहुत प्रासांगिक हो गए हैं। हम भारतीयों को तो कुछ भी नवीन नहीं करना है बस अपनें जीवन को सनातन मूल्यों पर आधारित कर लें तो सभी लक्ष्य स्वत: ही प्राप्त हो जाएंगे जिनकी प्राप्ति की कामना सम्पूर्ण विश्व समुदाय आज के दिवस पर कर रहा है।
विश्व पृथ्वी दिवस

रामनवमी पर्व : 19 अप्रैल 2013

                                              रामनवमी

राम नवमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ !!!! : =======================================भारत पर्वों का देश है, रामनवमी ऐसा ही एक पर्व है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को प्रतिवर्ष नये विक्रम सवंत्सर का प्रारंभ होता है और उसके आठ दिन बाद ही चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी को एक पर्व राम जन्मोत्सव का जिसे रामनवमी के नाम से जाना जाता है, समस्त देश में मनाया जाता है। इस देश की राम और कृष्ण दो ऐसी महिमाशाली विभूतियाँ रही हैं जिनका अमिट प्रभाव समूचे भारत के जनमानस पर सदियों से अनवरत चला आ रहा है। रामनवमी, भगवान राम की स्‍मृति को समर्पित है। राम सदाचार के प्रतीक हैं, और इन्हें "मर्यादा पुरूषोतम" कहा जाता है। रामनवमी को राम के जन्‍मदिन की स्‍मृति में मनाया जाता है। राम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, जो पृथ्वी पर अजेय रावण (मनुष्‍य रूप में असुर राजा) से युद्ध लड़ने के लिए आए। राम राज्‍य (राम का शासन) शांति व समृद्धि की अवधि का पर्यायवाची बन गया है। रामनवमी के दिन, श्रद्धालु बड़ी संख्‍या में उनके जन्‍मोत्‍सव को मनाने के लिए राम जी की मूर्तियों को पालने में झुलाते हैं। मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम की जीवन गाथा संस्कृत भाषा में वाल्मिकी के द्वारा रचित हुई थी..रामायण जो सर्वभाषी भारतीय साहित्य का प्रथम लौकिक काव्य ग्रन्थ माना जाता है । मध्यकाल में तुलसी रचित रामचरितमानस इसका अवधि संस्करण है।
रामनवमा की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

महाअष्ठमी उत्सव

                    महा अष्ठमी पर्व

वासंतीय नवरात्रा के समापन की पूर्व पीठिका पर आज हम स्तवन करते हैं विध्यादायिनी, वीणा पाणिनी, कमलासना माते सरस्वती का जो परम् शक्ति अथवा आदि शक्ति माँ पूर्णा प्रकृति के नव किंवा अन्यान्य स्वरुपों में से एक है । चैत्र शुक्ल अष्टमी का अत्यन्त विशिष्ट महत्त्व है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नवरात्र पूजा का जो आयोजन प्रारम्भ होता है, वह आज ही के दिन या दूसरे दिन नवमी को पूर्णता प्राप्त करता है। आज के दिन ही आदिशक्ति भवानी का प्रादुर्भाव हुआ था। भगवती भवानी अजेय शक्तिशालिनी महानतम शक्ति हैं और यही कारण है कि इस अष्टमी को महाष्टमी कहा जाता है।
सरस्वती वंदना

ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन

                       ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन

सनातन परम्परा में विध्यार्थी जीवन की विशेषताओं का एक सतही अवलोकन :

भारत की सनातन संस्कृति में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष का विवेचन यहाँ तक की जीवन से इतर जीवन की संकल्पनाएँ संपूर्ण विश्व समुदाय के लिए विराट एवम् अमूल्य धरोहर है। यह अलग तथ्य है कि हम भारताय अपनें मौलिक मूल्यों को सिरे से विस्मृत कर चुके हैं और अर्थ आधारित पश्चिमी सभ्यता के संवेदनाहीन आयामों का अन्धानुकरण कर रहे हैं। यहाँ हम विध्यार्थी जीवन पर हमारी सनातन संस्कृति में  अभिहित  तत्तवों  का  सतही ( बिना अधिक गहराई से ) अवलोकन करते हैं :

सामान्य मनुष्य के जीवन काल की समयावधि ऐक सौ वर्ष मानते हुये ऋषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार भागों में विभाजित किया है, जिन्हें आश्रम कहा जाता है। प्रत्येक आश्रम की अवधि पच्चीस वर्ष है तथा उनके नाम क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम हैं। इन के वर्गीकरण का आधार पूर्णतया  प्राकृतिक है जो मानव शरीर के दैहिक, शारीरिक, मानसिक एवम् आध्यात्मिक विकास के सर्वांगीण विकास के लक्ष्यों की पूर्ण प्राप्ति को सुनिश्चित करता है। यह जीवन को सम्यक दृष्टि से जीनें की महान् वैज्ञानिक पद्धति है। हमारी सनातन जीवन प्रणाली में  मानव जीवन के मूलभूत लक्ष्यों को चार भागों में अधिनियमित किया गया है -

           1. काम।
           2. अर्थ।
           3. धर्म तथा
           4. मोक्ष।
इन चार लक्ष्यों को चत्वारि पुरुषार्थ कहा जाता है । इन लक्ष्यों की प्राप्ति जीवन की सम्पूर्ण अवधि में पृथक पृथक कालों में अपेक्षित मानी गई है, उन्ही के अनुकूल यह 4 आश्रम निर्धारित किए गए हैं। चार आश्रमों का नियोजन अति वैज्ञानिक एवम् आध्यात्मिक नियमों पर आधारित है। इस व्यवस्था से मानव का सम्पूर्ण एवम् सर्वांगीण विकास सुनिश्चित है। यौन अंगों का विकसित होना और फिर शिथिल हो जाना,  बालों का पकना या झड़ जाना,   शरीर में उत्साह तथा शक्ति का क्षीण होने लगना आदि जीवन के व्यतीत होते चरणों का प्रत्यक्ष आभास है। आज भले ही आश्रमों के नाम बदले गये हों परन्तु समस्त विश्व में आज भी सभी सभ्य मानव इसी सनातन आश्रम पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं और करते रहेंगे।
                ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन
प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जन्म से ले कर जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष की आयु तक का समय ज्ञानार्जन हेतु सुनिर्धारित है। इस काल में दैहिक विकास के साथ साथ मस्तिष्क का यथा सम्भव पूर्ण विकास होता है।   सामान्य रुप से यह विध्यार्थी जीवन माना गया है जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ज्ञान प्राप्ति काल जन्म से ही आरम्भ हो जाता है जब नवजात अपने चारों ओर के वातावरण को, माता-पिता, सम्बन्धियों, और पशु-पक्षियों को पहचानने लगता है। हमें कतिपय ऐसे दिव्य शिशुओं के बारे में भी प्रमाण मिलते हैं जिनका अधिगम गर्भावस्था में ही प्रारम्भ हो गया था यथा अर्जुन पुत्र अभिमन्यु। बाल्य काल आरम्भ होने पर औपचारिक शिक्षा के लिये गुरुकुल विद्यालय जाता है। शिक्षा क्रम सामान्यतया पच्चीस वर्ष की आयु तक चलता रहता है। गुरु आश्रम में भेजनें की प्रक्रिया एक विशेष संस्कार कर्म के पश्चात प्रारम्भ होती है जिसे यज्ञोपवीत, उपनयन अथवा सामान्य शब्दों में जनेऊ संस्कार कहा जाता है। यह जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कारों में से एक है, उप का तात्पर्य है समीप तथा नयन का भावार्थ है ले जाना। ऋग्वैदिक काल में इस कर्म का संपादन पाँच अथवा छ: वर्ष की आयु में हो जाता था परन्तु उत्तरवैदिक काल के परवर्ती समय में समाज के चारों वर्णों के लिए पृथक पृथक आयु का निर्धारण कर दिया गया, ब्राह्मण वर्ण के बालक का 6 वर्ष की अवस्था में, क्षत्रिय बालक का 8 वर्ष, वैश्य वर्ण के बालक के लिए 10 वर्ष तथा शूद्र वर्ण के बालक के लिए 12 वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार होता था।

                           विध्यार्थी जीवन का मुख्य लक्ष्य चरित्र निर्माण, ज्ञान अर्जित करना तथा जीवन में आने वाली ज़िम्मेदारियों को झेलने की क्षमता प्राप्त करना है। सफलता तभी मिल सकती है जब विध्यार्थी अधिक से अधिकतर जीवन में काम आने वाली कलाओं – कौशलों में निपुण हो, अच्छी आदतों तथा विचारों से बलवान शरीर तथा स्थिर बुद्धि का विकास करे, और अपने मनोभावों तथा इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने का निरन्तर अभ्यास करे। अगामी पच्हत्तर वर्ष के जीवन की नींव विध्यार्थी जीवन में ही पड़ती है। यदि कोई इस काल में कठिनाईयों को झेलने की क्षमता अर्जित नहीं करता तो उस का अगामी जीवन कष्टप्रद ही रहेगा। इसी लिये विध्यार्थी जीवन में कठिनाईयों का सामना करने की क्षमता अत्याधिक विकसित करनी चाहिये। जीवन के आदर्शों तथा संतुलित व्यक्तित्व निर्माण के लिये, ब्रह्मचर्य के नियमों के पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि विध्यार्थी इस काल के दैनिक जीवन में निम्नलिखित आदतों को अपनायेः-
1. भोजन वस्त्र तथा रहन-सहन में सादगी और प्राकृतिक जीवन

   शैली का अवगाहन ।
2.ज्ञान प्राप्ति के लिये जिज्ञासापूर्ण द़ृष्टिकोण और कठोर परिश्रम

   का संकल्प धारण करना।
3.सकारात्मक आदर्शवादी विचारधारा और कर्मशील व्यक्तित्व के

    निर्माण के निमित्त सजग रहना।
4. स्वच्छ विचारों के साथ स्वस्थ एवं बलवान शरीर का निर्माण ।
5. हर प्रकार के नशीले पदार्थों के सेवन से मुक्ति।
6. नकारात्मिक विचारों, आदतों, आचर्णों तथा भाषा का बहिष्कार।
7.गुरुजनो और आयु में बड़ों के प्रति आदरभाव तथा मित्रों के प्रति

    सद्भाव और संवेदनशीलता का व्यवहार ।
जीवन के अगले आश्रम गृहस्थ जीवन के लिए जीविका उपार्जन के निमित्त व्यवसायिक ज्ञान में दक्षता और निपुणता की प्राप्ति।

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कक्षा नवम् की सभी छात्राओं को मिलेगी नि:शुल्क साइकिलें ।

कक्षा नवम् की सभी छात्राओं को मिलेगी साईकिल

कक्षा नवम् ( 9 वीं ) की वे छात्राएँ जिन्हें पूर्व में निशल्क साईकिल प्रदान नहीं की गई थी , अब विभागीय आदेशों में परिवर्तन के पश्चात् इसी सत्र की समाप्ति से पहले पहले अर्थात 30 अप्रल तक साइकिलें वितरित कर दी जाएगी । अगले शिक्षा सत्र अर्थात 1 मई 2013 से कक्षा नवम् ( 9 वीं) में प्रवेश लेनें वाली प्रत्येक छात्रा को साईकिल प्रदान की जाएगी जिनके आवास की दूरी विध्यालय से 0 किमी. से 5 किमी. हो. इससे अधिक दूरी से आनें वाली सभी छात्राओं को आनें जानें का किराया राज्य शिक्षा विभाग तदानुसार विध्यालय नकद प्रदान करेगा । आवागमन भत्ता अथवा Transport freight कक्षा नवम् से बारहवीं तक की उन सभी छात्राओं को प्रदान् किया जाएगा जिनके आवास की दूरी विध्यालय से 5 किमी. अधिक होगी ।