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सोमवार, 22 अप्रैल 2013

ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन

                       ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन

सनातन परम्परा में विध्यार्थी जीवन की विशेषताओं का एक सतही अवलोकन :

भारत की सनातन संस्कृति में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष का विवेचन यहाँ तक की जीवन से इतर जीवन की संकल्पनाएँ संपूर्ण विश्व समुदाय के लिए विराट एवम् अमूल्य धरोहर है। यह अलग तथ्य है कि हम भारताय अपनें मौलिक मूल्यों को सिरे से विस्मृत कर चुके हैं और अर्थ आधारित पश्चिमी सभ्यता के संवेदनाहीन आयामों का अन्धानुकरण कर रहे हैं। यहाँ हम विध्यार्थी जीवन पर हमारी सनातन संस्कृति में  अभिहित  तत्तवों  का  सतही ( बिना अधिक गहराई से ) अवलोकन करते हैं :

सामान्य मनुष्य के जीवन काल की समयावधि ऐक सौ वर्ष मानते हुये ऋषियों ने मानव जीवन को मुख्यता चार भागों में विभाजित किया है, जिन्हें आश्रम कहा जाता है। प्रत्येक आश्रम की अवधि पच्चीस वर्ष है तथा उनके नाम क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम हैं। इन के वर्गीकरण का आधार पूर्णतया  प्राकृतिक है जो मानव शरीर के दैहिक, शारीरिक, मानसिक एवम् आध्यात्मिक विकास के सर्वांगीण विकास के लक्ष्यों की पूर्ण प्राप्ति को सुनिश्चित करता है। यह जीवन को सम्यक दृष्टि से जीनें की महान् वैज्ञानिक पद्धति है। हमारी सनातन जीवन प्रणाली में  मानव जीवन के मूलभूत लक्ष्यों को चार भागों में अधिनियमित किया गया है -

           1. काम।
           2. अर्थ।
           3. धर्म तथा
           4. मोक्ष।
इन चार लक्ष्यों को चत्वारि पुरुषार्थ कहा जाता है । इन लक्ष्यों की प्राप्ति जीवन की सम्पूर्ण अवधि में पृथक पृथक कालों में अपेक्षित मानी गई है, उन्ही के अनुकूल यह 4 आश्रम निर्धारित किए गए हैं। चार आश्रमों का नियोजन अति वैज्ञानिक एवम् आध्यात्मिक नियमों पर आधारित है। इस व्यवस्था से मानव का सम्पूर्ण एवम् सर्वांगीण विकास सुनिश्चित है। यौन अंगों का विकसित होना और फिर शिथिल हो जाना,  बालों का पकना या झड़ जाना,   शरीर में उत्साह तथा शक्ति का क्षीण होने लगना आदि जीवन के व्यतीत होते चरणों का प्रत्यक्ष आभास है। आज भले ही आश्रमों के नाम बदले गये हों परन्तु समस्त विश्व में आज भी सभी सभ्य मानव इसी सनातन आश्रम पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं और करते रहेंगे।
                ब्रह्मचर्य आश्रम – विध्यार्थी जीवन
प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जन्म से ले कर जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष की आयु तक का समय ज्ञानार्जन हेतु सुनिर्धारित है। इस काल में दैहिक विकास के साथ साथ मस्तिष्क का यथा सम्भव पूर्ण विकास होता है।   सामान्य रुप से यह विध्यार्थी जीवन माना गया है जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ज्ञान प्राप्ति काल जन्म से ही आरम्भ हो जाता है जब नवजात अपने चारों ओर के वातावरण को, माता-पिता, सम्बन्धियों, और पशु-पक्षियों को पहचानने लगता है। हमें कतिपय ऐसे दिव्य शिशुओं के बारे में भी प्रमाण मिलते हैं जिनका अधिगम गर्भावस्था में ही प्रारम्भ हो गया था यथा अर्जुन पुत्र अभिमन्यु। बाल्य काल आरम्भ होने पर औपचारिक शिक्षा के लिये गुरुकुल विद्यालय जाता है। शिक्षा क्रम सामान्यतया पच्चीस वर्ष की आयु तक चलता रहता है। गुरु आश्रम में भेजनें की प्रक्रिया एक विशेष संस्कार कर्म के पश्चात प्रारम्भ होती है जिसे यज्ञोपवीत, उपनयन अथवा सामान्य शब्दों में जनेऊ संस्कार कहा जाता है। यह जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कारों में से एक है, उप का तात्पर्य है समीप तथा नयन का भावार्थ है ले जाना। ऋग्वैदिक काल में इस कर्म का संपादन पाँच अथवा छ: वर्ष की आयु में हो जाता था परन्तु उत्तरवैदिक काल के परवर्ती समय में समाज के चारों वर्णों के लिए पृथक पृथक आयु का निर्धारण कर दिया गया, ब्राह्मण वर्ण के बालक का 6 वर्ष की अवस्था में, क्षत्रिय बालक का 8 वर्ष, वैश्य वर्ण के बालक के लिए 10 वर्ष तथा शूद्र वर्ण के बालक के लिए 12 वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार होता था।

                           विध्यार्थी जीवन का मुख्य लक्ष्य चरित्र निर्माण, ज्ञान अर्जित करना तथा जीवन में आने वाली ज़िम्मेदारियों को झेलने की क्षमता प्राप्त करना है। सफलता तभी मिल सकती है जब विध्यार्थी अधिक से अधिकतर जीवन में काम आने वाली कलाओं – कौशलों में निपुण हो, अच्छी आदतों तथा विचारों से बलवान शरीर तथा स्थिर बुद्धि का विकास करे, और अपने मनोभावों तथा इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखने का निरन्तर अभ्यास करे। अगामी पच्हत्तर वर्ष के जीवन की नींव विध्यार्थी जीवन में ही पड़ती है। यदि कोई इस काल में कठिनाईयों को झेलने की क्षमता अर्जित नहीं करता तो उस का अगामी जीवन कष्टप्रद ही रहेगा। इसी लिये विध्यार्थी जीवन में कठिनाईयों का सामना करने की क्षमता अत्याधिक विकसित करनी चाहिये। जीवन के आदर्शों तथा संतुलित व्यक्तित्व निर्माण के लिये, ब्रह्मचर्य के नियमों के पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि विध्यार्थी इस काल के दैनिक जीवन में निम्नलिखित आदतों को अपनायेः-
1. भोजन वस्त्र तथा रहन-सहन में सादगी और प्राकृतिक जीवन

   शैली का अवगाहन ।
2.ज्ञान प्राप्ति के लिये जिज्ञासापूर्ण द़ृष्टिकोण और कठोर परिश्रम

   का संकल्प धारण करना।
3.सकारात्मक आदर्शवादी विचारधारा और कर्मशील व्यक्तित्व के

    निर्माण के निमित्त सजग रहना।
4. स्वच्छ विचारों के साथ स्वस्थ एवं बलवान शरीर का निर्माण ।
5. हर प्रकार के नशीले पदार्थों के सेवन से मुक्ति।
6. नकारात्मिक विचारों, आदतों, आचर्णों तथा भाषा का बहिष्कार।
7.गुरुजनो और आयु में बड़ों के प्रति आदरभाव तथा मित्रों के प्रति

    सद्भाव और संवेदनशीलता का व्यवहार ।
जीवन के अगले आश्रम गृहस्थ जीवन के लिए जीविका उपार्जन के निमित्त व्यवसायिक ज्ञान में दक्षता और निपुणता की प्राप्ति।

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