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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विविधा - हमारी धरोहर

                            तिरुमळा तिरुपति बालाजी

                      स्थिति - तिरूमाळा, जिला चित्तूर, आन्ध्र प्रदेश.
                   ऐतिहासिक संदर्भ - 
                                               1. इस मन्दिर की स्थापना पल्लव वंश की महारानी "संवाय" नें की थी. उन्होंनें ही सर्व प्रथम यहाँ रजत धातु निर्मित "भगवान व्यंकटेश" की मूर्ति की स्थापना की थी.
                                                2. "संगम साहित्य" ( 500 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी के मध्य रचित साहित्य में उपस्थित कविताओं के अनुसार तिरुपति में एक विशाल चींटियों के रहनें का आवास अर्थात "बाँबी" थी. एकदा आकाशवाणी हुई कि कोई है जो इन चींटियों को नियमित भोजन करवाएगा ?. यह आकाशवाणी एक कृषक नें सुन ली. वह नियमित रूप से इस दैवीय आदेश का पालन करता रहा. यह बात जब उस जनपद के शासक के पास पहुँची तो उसनें भी अपनें स्तर पर चींटियों के लिए दुध की व्यवस्था करवा दी. बाँबी पर लगीतार दुध डाले जानें के कारण वहाँ दबी हुई भगवान व्यंकटेश की प्रतिमा जो कई सदियों से धरा के नीचे दबी पड़ी थी, बाहर निकल आई. तब उसे श्रद्धापूर्वक वहीं स्थापित किया गया था.
                                         3.एक अन्य मिथक के अनुसार 12 वीं सदी में भक्ति परम्परा के प्रवर्तक श्री रामानुज के आगमन के पश्चात इस मन्दिर की स्थापना हुई थी. इसे यों भी कहा जा सकता है कि दक्षिणी भारत में वैष्णव विचारधारा के उद्भव का प्रतीक है यह मन्दिर.
                                         4. साक्ष्यों से स्पष्ठ होता है कि जब चोल साम्राज्य अपनें उत्कर्ष काल में था तब यह मन्दिर पूर्व से ही अपनी महत्ता के चरम शिखर पर था.तिरुपति के इतिहास के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद रहा है. परन्तु एक बात स्पष्ट रुप से सभी इतिहासकार स्वीकारते हैं कि 5वीं शताब्दी तक यह मंदिर धार्मिक केन्द्र के रुप में स्थापित हो चुका था. तिरुपति मंदिर कई शताब्दी पूर्व बना मंदिर है. तमिल साहित्य का संगम साहित्य बहुत ही महत्वपूर्ण है. उसमें बहुत सी ऎतिहासिक जानकारियाँ मिलती हैं. तमिल साहित्य के एक संगम साहित्य में तिरुपति को त्रिवेंगदम कहा गया है. इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि प्राचीन समय के चोल वंश, होयसाल वंश और विजयनगर के राजाओं ने इस मंदिर को आर्थिक रुप से योगदान देकर इसके निर्माण में हिस्सा लिया.
                                      5.कई इतिहासकार तिरुपति मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से मानते हैं, तब काँचीपुरम के शासक पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था. उसके बाद 15वीं सदी के विजयनगर वंश के शासन के दौरान भी मंदिर की ख्याति सीमित थी.  15वीं सदी के बाद तिरुपति मंदिर दूर-दूर तक प्रसिद्ध होने लगा. अंग्रेजों के शासन के दौरान सन 1843 से लेकर 1933 तक इस मंदिर के प्रबंधन कार्य को हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला. 1933 के पश्चात इस मंदिर के प्रबंधन का जिम्मा मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया. सरकार ने एक प्रबंधन समिति बनाई जिसका नाम "तिरुमाला-तिरुपति" रखा गया और इस समिति के हाथों में मंदिर के प्रबंधन की जिम्मेवारी दे दी गई.आंध्र प्रदेश राज्य का गठन होने के बाद तिरुमाला-तिरुपति समिति का पुनर्गठन किया गया और एक प्रशासनिक अधिकारी को आँध्र प्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रुप में नियुक्त किया गया.

 
                      निर्माण की शैली -  द्रविड़ शैली.
                      वास्तु की विशेषताएँ - मन्दिर स्थापत्य की कतिपय विशिष्टताएँ निम्न हैं - 
                           1.मन्दिर तीन परकोटों से घिरा हुआ है.
                           2.परकोटों पर गोपुर बनें हुए हैं,जिन पर जड़े गए 
                             स्वर्ण कलश अद्भूत कला के प्रतीक हैं.
                           3.मन्दिर के ठीक सामनें स्वर्ण निर्मित दीप्तिमान
                             स्तम्भ है.
                           4.सभा मण्डप के समीप एक बंद हौज है. इस हौज
                             को यहाँ "हुण्डी" कहा जाता है. भक्त गण अपनी 
                             मनोकामनाओं की पूर्ति होनें पर अपनी भेंट इसी
                             हौज में डालते हैं. यह हौज मन्दिर की आमदनी  
                             का साधन है.
                           5. मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार के समीप "जय" 
                              तथा "विजय" की की प्रतिमाएँ लगाइ हुई हैं. 
                           6. मन्दिर के गर्भ गृह में "भगवान व्यंकटेश" की 
                             प्रतिमा स्थापित है.
                           7. मन्दिर के समीप "पुष्करणी सरोवर" है,जहाँ 
                               आनें  वाले भक्तगण दर्शन पूर्व स्नान करते हैं.
                           8. प्रतिदिन यहाँ आनें वाले श्रद्धालुओं की संख्या 
                              औसतन 40,000 हैं.       
                           9. भारत को मंदिरों का महासागर कह सकते है.   
                               छोटे-बडे़ सभी मंदिरों को मिलाकर लाखों मंदिर 
                               भारत में मौजूद हैं. इन सभी मंदिरों में भारत के
                               आंध्र प्रदेश राज्य के चित्तूर जिले में तिरुपति 
                               मंदिर सबसे अधिक वैभवशाली मंदिर है.  
                           10.हर साल करोड़ों व्यक्ति इस मंदिर में दर्शन 
                               के लिए आते हैं. वर्ष में एक दिन भी ऎसा नहीं है 
                               जब इस मंदिर में लोगों की भीड़ ना लगी हो.
                               भारत में स्थित सभी तीर्थस्थानों में से सबसे 
                               अधिक आकर्षण का केन्द्र यह मंदिर है. इस 
                              मंदिर में सबसे अधिक तीर्थयात्री आते हैं. 
                               तिरुपति मंदिर विश्व के सबसे अधिक धनी 
                               धार्मिक स्थानों में से एक माना जाता है. यह 
                              मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और 
                              शिल्पकला का एक सजीव उदाहरण है.  
                           11.ऎसा माना जाता है कि तिरुपति मंदिर की 
                               उत्पत्ति वैष्णव सम्प्रदाय से हुई है. इस संप्रदाय
                               को मानने वाले व्यक्ति समानता और प्रेम का 
                               सदेश देते हैं. भगवान तिरुपति के दर्शन करनें 
                              वाले हरेक व्यक्ति को प्रभु की कृपा प्राप्त होती है.
                               भगवान विष्णु का ही अवतार प्रभु वेंकटेश्वर हैं.
                               उनके अन्य नाम श्रीनिवास और प्रभु बालाजी हैं. 
                               हिन्दु धर्म के अनुयायी तिरुपति के दर्शन को 
                               अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं. 
                               यहाँ आने वाले तीर्थयात्री दर्शन के बाद अपने 
                               जीवन को सकारात्मक दिशा देते हैं.
  

                   तिरुमाला पर्वत

तिरुपति मंदिर समुद्र तल से 3200 फीट की ऊँचाई पर तिरुमाला पहाड़ पर स्थित है. तिरुमाला की पहाड़ियों पर बने इस मंदिर को वैंकटेश्वर मंदिर भी कहा जाता है. इसे श्रीनिवास भगवान का मंदिर भी मानते हैं. श्रीनिवास भगवान विष्णु का ही नाम है. तिरुमाला पर्वत सात पहाड़ियों में से एक पहाडी़ तिरुमाला पर स्थित है. बाकी पहाड़ियाँ भगवान विष्णु के शेषनाग के फनों के समान लगती हैं. ऎसा भी कहा जाता है कि तिरुमाला-तिरुपति के चारों ओर की पहाड़ियाँ शेषनाग के सात फनों के आधार पर "सप्तगिरी" कहलाती हैं. यह सात पहाड़ियाँ "शेषाचलम" अथवा "वेंकटाचलम" भी कहलाती हैं. तिरुमाला पहाड़ियाँ विश्व में दूसरे स्थान पर स्थित सबसे प्राचीन चट्टानें मानी जाती हैं.भगवान वेंकटेश का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाडी़ पर है. यह पहाडी़ "वेंकटाद्री" के नाम से प्रसिद्ध है. भगवान व्यंकटेश अथवा बालाजी को भगवान विष्णु का ही अवतार माना जाता है. प्राचीन कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी तालाब के किनारे निवास किया था. यह तालाब तिरुमाला पर्वत के पास स्थित है.  एक अन्य जनश्रुति के अनुसार 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुमाला पर्वत की सातवीं पहाडी़, जिस पर मंदिर बना है, पर चढा़ई की थी. प्रभु वेंकटेश्वर जिन्हें भगवान श्रिनिवास भी कहते हैं, संत रामानुज के सामने प्रकट हुए और उन्हें दर्शन दिए. दर्शन देकर संत रामानुज को आशीर्वाद दिया. भगवान का आशीर्वाद मिलने पर वह 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे. जब तक संत रामानुज जीवित रहे तब तक जगह-जगह घूमकर भगवान वेंकटेश की ख्याति फैलाने का कार्य करते रहे.

                                                         

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

विध्यालय के भौतिक एवम् शैक्षिक विकास की गाथा

                         विध्यालय के भौतिक एवम् शैक्षिक विकास की गाथा (J)

                       स्वतंत्रता का शुभ दिवस एवम विध्यालय
                             सत्र 1947-1948 
भारत के स्वाधीनता संघर्ष का पटाक्षेप हुआ 15 अगस्त 1947 को, जब आधी रात को भारत की पूर्व गठित अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री पण्डित श्री जवाहर लाल नेहरू नें सेंट्रल हॉल नई दिल्ली में देश की आजादी का घोषणा पत्र पढ़ा. उन्होनें अपनें उद्बोधन में कहा - आज की रात्रि जब विश्व की आधी आबादी निद्रा में है, एक महान् राष्ट्र का जागरण हो रहा है. सर्वत्र जश्न एवम् प्रसन्नता का वातावरण था परन्तु वास्तव में राष्ट्र की आत्मा रो रही थी. आजादी के अनथक संघर्ष में हमनें बहुत कुछ खोया - पाया वहीं सफलता की अंतिम परिणिती में हम सब कुछ खो देंगे, यह दुस्वप्न शायद ही किसी नें देखा होगा. आजादी की अंतिम कीमत रही इस महान् देश के शरीर पर सांप्रदायिकता का चाकू घोंप कर इसका विभाजन. एक बारगी लोगों को ऐसा भी लगनें लगा कि आजादी की प्राप्ति कोई विराट एतिहासिक भूल तो नहीं हो गई है. भारतीय गंगा जमुनी संस्कृति से नितांत अनभिज्ञ अंग्रज ऑफिसर रेडक्लिफ को भारत बुलवाया गया जिसनें मेज पर रखे भारतवर्ष के प्रकृति द्वारा स्वत निर्मित भौगोलिक नक्शे पर अपनी पेंसिल से टेढ़ी मेढी रेखाएँ खींच कर महान राष्ट्र को मुलत 2 भागों में परन्तु भौगोलिक रूप से 3 भागों में विभाजित कर दिया. उन विभाजन रेखाओं के आर पार विश्व सभ्यता इतिहास की मानवीय सदभाव की एक मात्र प्रतीक भारतीय जनसंख्या के दल ऊस पार से इस पार तो इस पार से ऊस पार जा रहे थे. संपूर्ण उत्तरी भारत सहित पूर्वी एवम पश्चिमी क्षेत्रों में कई पीढियों से साथ साथ जीवन जीनें वाले समुदायों में अकारण ही किन्तु कुछ अवयवों द्वारा जान बूझ कर प्रचारित - प्रसारित किए गए संदेह नें गंगा जमुनी संस्कृति के तानें बानें को एक झटके में ही विदीर्ण कर डाला. विभाजन रेखाओं के दोनों ओर रक्त की नदियाँ और मानव शवों के के ढेर किसी शैतानी वहशत के सक्रिय होकर मानवता और सबसे बड़ी बात इस महान राष्ट्र की हत्या की कहानी सांगोपांग कह रहे थे. महान राष्ट्र सैद्धांन्तिक तौर पर 2 भागों में और भौगोलिक रूप से 3 भागों में विभाजित हो चुका था ....1.भारत एवम 2. पाकिस्तान जिसके भारत भूमि के पूर्ब और पश्चिम दोनों पार्श्वों में दो भाग थे- पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान का पाकिस्तान) तथा पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान का बांग्लादेश). स्वतंत्रता, विभाजन की त्रासदी एवम विभाजित किंतु स्वतंत्र भारत का अपना एक पृथक इतिहास है. हमारा मुख्य जाननें वाला विषय है इस समय ग्राम मीठड़ी तथा विध्यालय की तत्कालीन स्थिति.
                              ग्राम मीठड़ी स्वतंत्रता के समय सैद्धान्तिक रूप से मारवाड़ अथवा जोधपुर रियायत के अन्तर्गत आनें वाला खालसा ग्राम था. स्वतंत्रता का प्रथम जयघोष ब्रिटिश भारत के 11 प्रान्तों में हुआ था, देशी रियासतों के सम्बन्ध में एक पृथक व्यवस्था स्थापित की गई थी जिसका उल्लेख यहाँ अप्रासंगिक होगा. राजपूताना की 19 प्रमुख रियासतों एवम  3 रजवाड़ों को भारतीय संघ में सम्मिलित करनें का एक लम्बा एवम जटिल प्रकरण चला था जिसके पीछे रियासतों के लिए तय की गई शर्तें एवम देशी शासकों की हठधर्मिता मुख्य कारण रही थी. जोधपुर महाराजा हनुवंत सिंह लम्बे वार्ता दौरों तथा प्रयासों के बाद वृहत्त राजस्थान संघ में सम्मिलित होकर मारवाड़ राज्य को ऱाष्ट्रीय मुख्य धारा से जोड़ चुके थे. यध्यपि राजस्थान एकीकरण की प्रक्रिया 1956 में जाकर संपूर्ण हुई थी.आजादी के तुरंत पश्चात भारत के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्रों में व्यापक पैमानें पर हुई साम्प्रदायिक हिंसा का दावानल मारवाड़ रियासत की सीमाओं को स्पर्श भी नहीं कर पाया था. तथापि ग्राम के कायमखानी समाज के 4 परिवार सेना विभाजन के अन्तर्गत पाकिस्तान के हिस्से में आनें के कारण अपनें परिवारों सहित जोधपुर - मुनाबाब रेल्वे लाईन से पाकिस्तान के सिंध प्रांत के हैदराबाद, मीरपुर खास के आसपास के ग्रामों में जाकर परदेशी हो गए. बताया गया है उन बुजुर्गों की प्रारम्भिक शिक्षा इसी विध्यालय में हुई थी. एक रंगरेज अथवा मुस्लिम छींपा परिवार जिसनें 1947 में प्रवजन कर मीठड़ी की जगह कराची को अपना मुकाम बनाया था, के एक वृद्ध सज्जन 2003 में जब अपनें इस पैतृक ग्राम में आए थे तब उनकी आँखें नम हो गई थी अपनी प्रथम स्कूल के पुनर्दर्शन पाकर.1947 में स्वतंत्रता के एक माह पूर्व प्रारम्भ हुए सत्र के शाला परिवार एवम विध्यार्थियों नें 16 अगस्त 1947 का दिवस किस प्रकार अनुभूत किया होगा इसकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है. कॉंग्रेस के सुराज की कल्पना को साक्षात साकार होते देखनें का अनुभव निश्चय ही अवर्णनीय रहा होगा. सत्र 1947-48 निश्चय ही आजादी की नवीन उमंगों, उद्दाम उल्लास तथा आशाओं की ऊँची उड़ान के साथ चल कर व्यतीत हुआ होगा. इस सत्र में कार्यरत रहहे शाला स्टॉफ का विवरण निम्न है - 
          1.मुख्य अध्यापक - श्री सीताराम (वेतन 44 रूपए मासिक)
          2.सहा. अध्यापक  - श्री मोहन लाल (वेतन 35 रूपए मासिक)
          3.सहा. अध्यापक  - श्री सिकन्दर अली पुत्र श्री गन्नी मोहम्मद
                                     (नव नियुक्त वेतन 31 रूपए मासिक)
         4.सहा. अध्यापक  - ईब्राहीम खान पुत्र श्री चाँद खान
                                     (नव नियुक्त वेतन 31 रूपए मासिक)
         5.सहा. अध्यापक  - श्री वाटसन पुत्र मिस प्रेमाजी
                                     (नव नियुक्त वेतन 41 रूपए मासिक) 
         6.श्री हनुमाना राम - चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी (वेतन 24.50 रूपए मासिक)
ऊपर दी गई स्टॉफ सूची से स्पष्ठ ज्ञात हो जाता है कि गत सत्र में कार्यरत रहे मुख्य अध्यापक बीरबल सिंह सहित एक सहायक अध्यापक श्री हस्ती मल का स्थानान्तरण अन्यत्र हो गया वहीं तीन नए सहायक अध्यापकों श्री सिकन्दर अली, श्री ईब्राहिम खान एवम श्री वाटसन की नियुक्ति के साथ ही अध्यापकों की संख्या 5 हो गई थी. श्री वाटसन पाठशाला में नियुक्त हेनें वाले प्रथम एवम अन्तिम एंग्लोइंडियन अध्यापक थे जिनके पिता अजमेर स्थित ऐ.जी.जी. के कार्यालय में काम करनें वाले अंग्रेज कार्मिक थे.
विभाजन की त्रासदी        

जोधपुर नरेश हनुवंत सिंह की नेहरू जी के साथ विशेष बैठक
14 अगस्त 1947 की अर्द्ध रात्रि को सत्ता हस्तान्नतरण
स्वतंत्रता या कि जान बचानें की दौड़
स्वतंत्रता एवम विभाजन का असली स्वरूप

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

विध्यालय के भौतिक एवम् शैक्षिक विकास की गाथा

                             विध्यालय के भौतिक एवम् शैक्षिक विकास की गाथा (I)

                                        सत्रावधि 1945-46 से 1946-1947
                                                            सत्र 1945-1946
 1945-46 का राष्टृीय परिदृश्य स्वराज, स्वतंत्रता, स्व संविधान जैसी घटनाओं से औत प्रोत हो रहा था. संस्था का तत्कालीन राष्टृीय उद्दाम भावनाओं क आम जन में संप्रेषण करनें में निश्चय ही आधारभूत महत्त्व रहा होगा, यध्यपि इसका हमें कोई लिखित साक्ष्य तो प्राप्त नहीं होता तथापि उस काल में छात्र रूप में अध्ययन करनें वाले बुजुर्ग पीढ़ी के कतिपय सज्जनों के अनुसार राष्टृीय घटनाक्रम से ग्राम जनों को परिचित करवानें में अध्यापकों तद्नुसार शाला का विशेष महत्त्व रहा था.  इस सत्र का शाला स्टॉफ पूर्व सत्र कतरह निम्नानुसार रहा था -
          1.मुख्य अध्यापक    -    श्री बीरबल सिंह वेतन 44 रूपए मासिक.
          2.सहायक अध्यापक -  श्री हरिशरण वेतन 40 रूपए मासिक.
          3.सहायक अध्यापक -  श्री भँवर लाल वेतन 41 रूपए मासिक.
          4.सहायक अध्यापक -  श्री हस्तीमल वेतन 36 रूपए मासिक. 
                                                    सत्र 1946-1947
नए सत्र के प्रारम्भ से ही 1946-47 में शाला परिवार में स्टॉफ सदस्यों की संख्या पाँच हो गई, परन्तु नया जुड़नें वाला सदस्य अध्यापक नहीं था अपितु पाठशाला के इतिहास में नियुक्त होनें वाले प्रथम चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे जिनके सुकृत्यों का वर्णन आज भी ग्राम जनों की जुबान है. यह सज्जन थे श्री हनुमाना राम पुत्र श्री शिवजी राम निवासी ग्राम रायधना . रायधना ग्राम मीठड़ी ग्राम से उत्तर में लगभग 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. पाठशाला में पानी पिलानें एवम रात्रि सुरक्षा के लिए यह पद सृजित हुआ था. लॉग बुक की पृष्ठ संख्या 101 पर बाकायदा नवीन खाता या विवरण पन्ना शुरू करते हुए लिखा है - श्री हनुमान पुत्र श्री शिवजी राम जाट, निवासी - रायधना ,पद - चपरासी, योग्यता - , जन्म तिथि 18-09-1924 ,नियुक्ति तिथि 01-07-1947,वेतन श्रृंखला 24-01- 34 अंकित है. अर्थात प्रथम वेतन 24 रूपए था, जो उक्त लॉग बुक में वर्णन लिखे जानें के समय (1961) 46 रूपए मासिक हो गया था. ज्ञात तथ्य यह भी है कि श्री हनुमाना राम नें अपना संपूर्ण सेवा काल इसी विध्यालय में ही व्यतीत किया.1984 में सेवा निवृत्ति के पश्चात जीवन की अंतिम शवाँस तक विध्यालय के सेवा कार्य से जुड़े रहे. विध्यालय ही नहीं ग्राम मीठड़ी सहित समीपस्थ ग्रामों के निवासियों में वे "बाबा" के उपाख्य नाम से प्रसिद्ध थे. अपनें सेवा काल में बाबा नें वर्तमान शाला परिसर, शाला के ठीक ऊत्तरी पार्श्व में लगभग 4 बीघा क्षेत्र का "श्री मानावत राष्टृीय औषधालय परिसर", पुरानें विध्यालय जिसे वर्तमान में हम "जीवन छात्रावास" के नाम से जानते हैं के परिसर, पाठशाला के पीछे विस्तृत लगभग 12 बीघा खैल मैदान परिसर में पीपल, बरगद, नीम, आड़ू नीम, शीशम, सरेस, कीकर, खेजड़ी इत्यादि के कई वृक्ष लगाए जिनकी संख्या 50 से ज्यादा थी. ऊनमें से 80 प्रतिशत पेड़ आज भी बाबा द्वारा की गई सेवा के साक्षी रूप में विध्यमान है. बताया गया है कि उन विकट वर्षों में पानी के एक कलश के लिए ग्राम जन कई कोस दूरी तक चले जाते थे, रात रात भर मीठे पानी के कुओं पर लोग अपनी बारी आनें की प्रतिक्षा करते थे. उन दिनों में बाबा नें किस प्रकार कलशे भर भर कर,कहाँ कहाँ से मीठा पानी लाकर इन पेड़ पौधों को पाला पोसा होगा, उस महान् कार्य को शब्दों उल्लेखित कर पाना कठिन है. कह सकते हैं कि उनका यह प्रयास किसी भागीरथ प्रयत्न से कम नहीं था. बाबा की अपनें नत्तिक कार्य के अतिरिक्त प्रकृति प्रेम एवम प्राकृतिक संपदा को संरक्षित रखनें की य़ह कार्य साधना किसी घोर तपस्या से कमतर नहीं थी.जहाँ तक अध्यापक बन्धुओं के संदर्भ की बात है सत्र के मध्य 2 सहायक अध्यापकों का अन्यत्र स्थानान्तरण हुआ वहीं 2 सहायक अध्यापक नव नियुक्ति होकर शाला परिवार से जुड़े. सत्र 1946-1947 के शाला स्टॉफ का विवरण निम्नानुसार है -
         1.मुख्य अध्यापक - श्री बीरबल सिंह, वेतन 43 रूपए मासिक.
         2.सहा.अध्यापक -   श्री हस्तीमल, वेतन 37 रूपए मासिक.
         3.सहा.अध्यापक -   श्री सीताराम पुत्र श्री गोविन्द लाल 
                                      ( नव नियुक्ति,वेतन 43 रूपए मासिक)
        4.सहा.अध्यापक -     श्री मोहन लाल (नव नियुक्ति, वेतन 34 रूपए मासिक.
        5.सहायक कर्मचारी - हनुमाना राम,वेतन 24 रूपए मासिक .
जिमखाना परेड कोलकाता 1946

एक त्रासदी - विभाजन 1947
                                                                       ============    
 

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

दण्डवत स्वामी

                              विविधा

                          दण्डवत स्वामी

दक्षिणी भारत में "पैठण" अथवा "पैठन" नामक तीर्थ स्थान पर "एकनाथ" नाम से प्रसिद्ध संत निवास करते थे. उनके सानिध्य में कई शिष्य गण धर्म,आध्यात्म और दर्शन की शिक्षा ग्रहण करते थे. उनमें से एक शिष्य की गतिविधियों को देख कर उन्होनें अनुभूत किया कि शिष्य का कल्याण "समदर्श" साधन से ही सम्भव है. "सर्व जन हिताय एवम्ं सर्वजन सुखाय" का मार्ग ही संसार में परम् कल्याण का मार्ग है. जिस शिष्य के व्यवहार में इस विचारधारा का दर्शन संत एकनाथ को हुआ उसे उन्होंनें अपनें समीप बुलवाया और अपनें सामनें बैठा कर कहा "हे ! आर्य पुत्र जो सत्य ज्ञान में अपनें शिष्यों को उनके दीक्षांत पर देता हूँ, उसके दर्शन मैनें अनायास - सायास तुम्हारे कार्य व्यवहार में किए हैं अस्तु मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम अच्छे संस्कारों में पालित पोषित होकर मेरे पास अध्ययन के निमित्त आए हो. तुम्हारे द्वारा प्राणी मात्र के साथ किए जानें वाले व्यवहार को धर्मनीतिज्ञों तथा शास्त्रों में "समदर्शना" के नाम से उल्लेखित किया गया है. वेदादि ग्रन्थों में यह स्पष्ठ लिखा गया है कि इस जगत के प्रत्येक तत्व चाहे वह जड़ है किंवा चेतन, सर्वत्र उस "परमब्रह्मा" का अस्तित्तव है जिसके बारे में वैदिक ऋषि आह्वान करते हैं- "अहमं ब्रह्मास्मि, तत्वमस्मि,सर्व खलविद् ब्रह्मास्मि". अत प्रत्येक प्राकृतिक अवयव के साथ सदैव प्रेममय व्यवहार करो, चूँकि मानव में प्रज्ञा है, उसमें विवेक है अस्तु प्रत्येक मानव चाहे वह किसी वर्ण किंवा जाति का हो, उससे स्नेह,प्रेम तथा "आत्मवत् सर्वोभूतेषु" के आधार पर व्यवहार करो. मानव रूप का चेतन तत्व आत्मा वस्तुत: उस परमात्मा का ही अंश है अस्तु जागतिक दृष्टि से सभी मानव समान है. प्रत्येक मानव को परमात्मा का अंश मान कर मानव मात्र के प्रति भी वही श्रद्धा रखो जैसी तुम परमेश्वर के प्रति रखते हो. मैं तुम्हें एक जीवन मंत्र प्रदान कर रहा हूँ कि तुम्हे जब भी किसी मनुष्य के दर्शन हो तो उसे दण्डवत् प्रणाम करना. अपनें गुरु से शिक्षा समापवर्तन का समादेश पाकर वह शिष्य वापस अपनें पितृ आवास नहीं लौटा अपितु सन्यासी बनकर विचरण करता रहा. परन्तु अपनें गुरु के दीक्षांत आदेश को कभी विस्मृत नहीं किया. उसे जो भी मानव- नर किंवा नारी कहीं भी मिल जाते तो वह तुरंत दण्डवत् होकर प्रणाम को सदैव प्रस्तुत रहता. कुछ ही दिनों में वह सन्यासी दण्डवत् स्वामी के नाम से ही संज्ञापित होनें लगा. यहाँ तक की वह स्वयं भी अपना साँसारिक नाम विस्मृत कर चुका था,अंतत वह दण्डवत नमन ही उसकी समाधि बन गई, वह समाधि आज भी पैठण में है.

पैठण स्थित संत एकनाथ की समाधि


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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

विध्यालय के भौतिक एवम् शैक्षिक विकास की गाथा

विध्यालय के भौतिक एवम् शैक्षिक विकास की गाथा (H)

                    सत्रावधि 1941-42 से1944-45
1941-42 के नव सत्रारम्भ पर प्राथमिक कक्षाओं के लिए आनुपातिक रूप से शाला स्टॉफ में अध्यापकों की संख्या पाँच हो गई. पूर्व सत्र के अंत में कार्यरत रहे तीन अध्यापक यथावत रहे इसके अतिरिक्त दो नए अध्यापकों की नियुक्ति के साथ अध्यापक पदों की संख्या पाँच हो गई. इस प्रकार सत्र 1941-1942 के शाला स्टॉफ का विवरण निम्नानुसार बनता है - 
                                सत्र 1941-1942.
         1.प्रधानाध्यापक - श्री लायक राम शर्मा- वेतन 48 रूपए मासिक.
         2.सहायक अध्यापक  - श्री मुकन दास - वेतन 31 रूपए मासिक.
         3.सहायक अध्यापक  - श्री मोतीलाल - वेतन 29 रूपए
         4.सहायक अध्यापक - श्री बीरबल सिंह पुत्र श्री सूरज मल
                                         (नव नियुक्ति,वेतन 20 रूपए मासिक)
         5.सहायक अध्यापक - श्री हरीशरण पुत्र श्री देवीराम
                                         (नव नियुक्ति, वेतन 38 रूपए मासिक). 
इस प्रकार अध्यापकों के पदों में हो रही निरन्तर वृद्धि इस तथ्य का भी प्रतीक है कि पाठशाला में अध्ययन करनें वाले छात्रों की संख्या में भी लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी. ज्ञात तथ्य यह भी है कि इस सत्र में कक्षा प्रथम से लेकर पंचम् तक विध्यार्थियों की संख्या तत्कालीन मापदण्दों से अधिक चल रही थी. निश्चय ही पराधीन भारत के उस दौर में भी ग्राम जनों एवम् समीपस्थ गाँवों के ग्रामीण भी  शिक्षा के प्रति जागरूक रहे थे. 1942-43 में उक्त स्टॉफ ही कार्यरत रहा. 8 अगस्त 1942 को तत्कालीन बोम्बे के ग्वालियर टैंक मैदान में अरूणा आसफ अली नें राष्टृीय ध्वज पहरा कर भारत छोड़ो आन्दोलन का शंखनाद कर दिया था. एक दृष्टि से गाँधी जी नें इस आन्दोलन में करो या मरो का मूल मंत्र देकर एक तरह से भारतीयों को किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता प्राप्ति का आह्वान कर दिया गया था. यह एक तरह से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कथित अतिवादी स्वरूप को मौन सहमति थी. हमें एसा कोई तथ्य ज्ञात नहीं है कि इस आन्दोलन के समय देशी रियासतों के इस ग्रामीण परिवेश पर क्या प्रभाव पड़ा था. तथापि यह मान्य तथ्य है कि राष्टृीय घटनाक्रमों की जानकारी का एक मात्र स्त्रोत अध्यापक गण ही थे जिनके पास संध्या भोजन के बाद ग्रामीणों की प्रायकर बैठकें जमती थी.
                      सत्र 1942- 1943 का शाला स्टॉफ
          1.प्रधानाध्यापक - श्री लायक राम शर्मा- वेतन 48 रूपए मासिक.
          2.सहायक अध्यापक - श्री मुकन दास - वेतन 31 रूपए मासिक.
          3.सहायक अध्याप - श्री मोतीलाल - वेतन 29 रूपए मासिक.
          4.सहायक अध्यापक - श्री बीरबल सिंह पुत्र श्री सूरज म
                                         (नव नियुक्ति,वेतन 20 रूपए मासिक)
          5.सहायक अध्यापक  - श्री हरीशरण पुत्र श्री देवीराम
                                      (नव नियुक्ति, वेतन 38 रूपए मासिक).
                          सत्र 1943-44 का शाला स्टॉफ
सत्र 1943-1944 में तीन अध्यापकों का स्थान्नतरण के पश्चात तीन अध्यापकों का स्टॉफ ही कार्यरत रहा. पूर्व सत्र में कार्यरत रहे श्री लायक राम शर्मा (प्रधानाध्यापक) सहित दो अन्य सहायक अध्यापक जनों - श्री मुकन दास एवम् श्री मोतीलाल सहित तीन कार्मकों का स्थानान्तरण अन्यत्र हो गया वहीं विध्यालय में एक सहायक अध्यापक की नियुक्ति के साथ स्टॉफ सदस्यों की संख्या तीन रही. नव पदास्थापित सहायक अध्यापक श्री भँवर लाल पुत्र श्री नारायण लाल थे. इस प्रकार सत्र 1943-1944 का पाठशाला स्टॉफ निम्नानुसार रहा -
         1.श्री बीरबल सिंह - प्रधानाध्यापक - वेतन 43 रूपए मासिक.
         2.श्री हरिशरण - सहायक अध्यापक - वेतन 39 रूपए मासिक.
         3.श्री भँवर लाल - सहायक अध्यापक - वेतन 40 रूपए मासिक. 

                               सत्र 1944-1945 में शाला स्टॉफ
 सत्र 1944-1945 में पाठशाला में एक सहायक अध्यापक की नियुक्ति नव सत्रारम्भ अर्थात जुलाई 1944 में जिला शिक्षणालय नागौर के द्वारा कर दी गई. नवागंतुक अध्यापक का नाम श्री हस्तीमल पुत्र श्री पुखराज, जिनके नियुक्ति आदेश में उनका स्टॉफ संख्यांक 2334 दर्ज है.इस प्रकार सत्र 1944-1945 में संपूर्ण शाला स्टॉफ का विवरण निम्नानुसार लिखा जा सकता है - 
         1.श्री बीरबल सिंह - प्रधानाध्यापक - वेतन 43 रूपए मासिक.
         2.श्री हरिशरण - सहायक अध्यापक - वेतन 39 रूपए मासिक.
         3.श्री भँवर लाल - सहायक अध्यापक - वेतन 40 रूपए मासिक. 
         4.श्री हस्तीमल पुत्र श्री पुखराज - नव नियुक्त सहायक अध्यापक.
                                  (स्टॉफ संख्यांक - 2334,वेतन 35 रूपए मासिक)
बम्बई (मुम्बई) की सड़कों पर नारी शक्ति का पैदल मार्च,भारत छोड़ो आन्दोलन.

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