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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

दण्डवत स्वामी

                              विविधा

                          दण्डवत स्वामी

दक्षिणी भारत में "पैठण" अथवा "पैठन" नामक तीर्थ स्थान पर "एकनाथ" नाम से प्रसिद्ध संत निवास करते थे. उनके सानिध्य में कई शिष्य गण धर्म,आध्यात्म और दर्शन की शिक्षा ग्रहण करते थे. उनमें से एक शिष्य की गतिविधियों को देख कर उन्होनें अनुभूत किया कि शिष्य का कल्याण "समदर्श" साधन से ही सम्भव है. "सर्व जन हिताय एवम्ं सर्वजन सुखाय" का मार्ग ही संसार में परम् कल्याण का मार्ग है. जिस शिष्य के व्यवहार में इस विचारधारा का दर्शन संत एकनाथ को हुआ उसे उन्होंनें अपनें समीप बुलवाया और अपनें सामनें बैठा कर कहा "हे ! आर्य पुत्र जो सत्य ज्ञान में अपनें शिष्यों को उनके दीक्षांत पर देता हूँ, उसके दर्शन मैनें अनायास - सायास तुम्हारे कार्य व्यवहार में किए हैं अस्तु मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम अच्छे संस्कारों में पालित पोषित होकर मेरे पास अध्ययन के निमित्त आए हो. तुम्हारे द्वारा प्राणी मात्र के साथ किए जानें वाले व्यवहार को धर्मनीतिज्ञों तथा शास्त्रों में "समदर्शना" के नाम से उल्लेखित किया गया है. वेदादि ग्रन्थों में यह स्पष्ठ लिखा गया है कि इस जगत के प्रत्येक तत्व चाहे वह जड़ है किंवा चेतन, सर्वत्र उस "परमब्रह्मा" का अस्तित्तव है जिसके बारे में वैदिक ऋषि आह्वान करते हैं- "अहमं ब्रह्मास्मि, तत्वमस्मि,सर्व खलविद् ब्रह्मास्मि". अत प्रत्येक प्राकृतिक अवयव के साथ सदैव प्रेममय व्यवहार करो, चूँकि मानव में प्रज्ञा है, उसमें विवेक है अस्तु प्रत्येक मानव चाहे वह किसी वर्ण किंवा जाति का हो, उससे स्नेह,प्रेम तथा "आत्मवत् सर्वोभूतेषु" के आधार पर व्यवहार करो. मानव रूप का चेतन तत्व आत्मा वस्तुत: उस परमात्मा का ही अंश है अस्तु जागतिक दृष्टि से सभी मानव समान है. प्रत्येक मानव को परमात्मा का अंश मान कर मानव मात्र के प्रति भी वही श्रद्धा रखो जैसी तुम परमेश्वर के प्रति रखते हो. मैं तुम्हें एक जीवन मंत्र प्रदान कर रहा हूँ कि तुम्हे जब भी किसी मनुष्य के दर्शन हो तो उसे दण्डवत् प्रणाम करना. अपनें गुरु से शिक्षा समापवर्तन का समादेश पाकर वह शिष्य वापस अपनें पितृ आवास नहीं लौटा अपितु सन्यासी बनकर विचरण करता रहा. परन्तु अपनें गुरु के दीक्षांत आदेश को कभी विस्मृत नहीं किया. उसे जो भी मानव- नर किंवा नारी कहीं भी मिल जाते तो वह तुरंत दण्डवत् होकर प्रणाम को सदैव प्रस्तुत रहता. कुछ ही दिनों में वह सन्यासी दण्डवत् स्वामी के नाम से ही संज्ञापित होनें लगा. यहाँ तक की वह स्वयं भी अपना साँसारिक नाम विस्मृत कर चुका था,अंतत वह दण्डवत नमन ही उसकी समाधि बन गई, वह समाधि आज भी पैठण में है.

पैठण स्थित संत एकनाथ की समाधि


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