श्री महावीर स्वामी जयंती
आज का दिवस सम्पूर्ण राष्ट्र में महावीर स्वामी की जयंती के रुप में मनाया जा रहा है। जैन परम्परा में मान्यता है कि महावीर 24 वें तीर्थंकर थे अस्तु महावीर जैनधर्म के प्रवर्तक नहीं होकर परिमार्जक है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ या आदिस्वामी अथवा ऋषभ देव से इस सृष्टि का आरम्भ माना जाता है जिनका अवतरण अयोध्या में हुआ था ।महावीर से पूर्व के 23 तीर्थंकरों का समय समय पर इस धरा पर अवतरण हुआ है। 23 वें तीर्थंकर काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र पार्श्वनाथ थे जिनका जीवन महावीर से ठीक 100 वर्ष पूर्व माना जाता है। महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को ईसा पूर्व षष्ठमी सदी में हुआ था । माना जाता है कि आपके माता पिता निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के थे
जो कि महावीर के पूर्व का जैन विचार धर्म था । पार्श्व नाथ के शिष्यों को निर्ग्रन्थवादी कहा जाता था जिसका शाब्दिक तात्पर्य है बँधन मुक्त। महावीर स्वामी को हम परिमार्जकइस दृष्टि से भी मान सकते हैं क्योंकि अपनी 12 वर्षीय कठोर तप साधना के पश्चात जो कैवल्य ( परम् ज्ञान) प्राप्त किया था उसके अनुसार उन्होनें मानव जीवन में पाँच आर्य सत्यों को अपनाना पाप मुक्ति के लिए आवश्यक घोषित किया था । उन्होनें निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय
के चार आर्य सिद्धान्तों ...सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, एवम् अस्तेय में पाँचवाँ सिद्धान्त ब्रह्मचर्य और जोड़ा था । अहिंसा की अति सूक्ष्म एवम् सार्वभौमिक व्याख्या महावीर की महानतम देन है। उनके स्याद्ववाद, महाव्रत, अणुव्रत , त्रिरत्न आदि की विचारधारा के समागम से निर्ग्रन्थ समुदाय और भी अधिक गहराई से आध्यात्म के लक्ष्य तक पहुँचा। महावीर स्वामी का मूल नाम वर्द्धमान थातथापि इनके सर्व प्रचलित नाम निम्न रहे हैं --
जो कि महावीर के पूर्व का जैन विचार धर्म था । पार्श्व नाथ के शिष्यों को निर्ग्रन्थवादी कहा जाता था जिसका शाब्दिक तात्पर्य है बँधन मुक्त। महावीर स्वामी को हम परिमार्जकइस दृष्टि से भी मान सकते हैं क्योंकि अपनी 12 वर्षीय कठोर तप साधना के पश्चात जो कैवल्य ( परम् ज्ञान) प्राप्त किया था उसके अनुसार उन्होनें मानव जीवन में पाँच आर्य सत्यों को अपनाना पाप मुक्ति के लिए आवश्यक घोषित किया था । उन्होनें निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय
के चार आर्य सिद्धान्तों ...सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, एवम् अस्तेय में पाँचवाँ सिद्धान्त ब्रह्मचर्य और जोड़ा था । अहिंसा की अति सूक्ष्म एवम् सार्वभौमिक व्याख्या महावीर की महानतम देन है। उनके स्याद्ववाद, महाव्रत, अणुव्रत , त्रिरत्न आदि की विचारधारा के समागम से निर्ग्रन्थ समुदाय और भी अधिक गहराई से आध्यात्म के लक्ष्य तक पहुँचा। महावीर स्वामी का मूल नाम वर्द्धमान थातथापि इनके सर्व प्रचलित नाम निम्न रहे हैं --
1.निगंठ्ठ नाट्पुत्त - समकालीन बौद्ध साहित्य में जो कि अधिकाँशत:
पाली भाषा में रचित है में महावीर को निगंठ्ठ
अर्थात निर्ग्रन्थ नात्तपुत्र के उपाख्य से
उल्लेखित किया गया है।
2. केवलिन् - वर्द्धमान नें 30 वर्ष की अवस्था में सन्यास ग्रहण
कर अगले 12वर्ष घोर तप साधना में व्यतीत
किए अंतत: ऋजुपालिका नदी के तट पर समघा
नामक आर्य के आवास के समीप के पीपल वृक्ष के
नीचे परम् ज्ञान को प्राप्त किया था जिसे कैवल्य
कहा जाता है, कैवल्य की प्राप्ति के कारण ये
केवलिन् भी कहलाए।
3. महावीर - इन्होनें अपना साधना समयावधि में अनेकानेक
शारीरिक, मानसिक, दैहिक, आंतरिक एवम्
बाहरी कष्टों, आतपों, अत्याचारों का दृढ़ता पूर्वक
सामना किया। साधना पथ पर एक क्षण मात्र भी
उनका मन एवम् चित्त आड़ोलित या विचलित
नहीं हुआ जो कि मानव की वास्तविक वीरता है,
अस्तु इन्हें महावीर के उपाख्य नाम से जाना गया
जो कि इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम है।
4. जिन् - यह प्राकृत भाषा का शब्द है जिसका तात्पर्य है
जीतनें वाला या विजेता । महावीर नें तप साधना
से न केवल पाप मुक्ति प्राप्त कर ली अपितु
मानव समाज को भी जन्म मरण के चक्र से
विमुक्ति का ऎक व्यवहारिक जीवन सिद्धान्त
प्रदान किया था। उन्होनें मन की विकृतियों पर
विजय प्राप्त कर ली थी अत: वे जिन् भी कहलाए।
साथ ही यहीं से प्रारम्भ होता है निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय
का नवीन नाम - जैन । जो जिन् अर्थात विजेता
के अनुयायी बनें वे जैनी कहलाए ।
5. सन्मति - बाल्यकाल में महावीर महल के आँगन में खेल रहे थे।
तभी आकाशमार्ग से संजय मुनि और विजय मुनि का
निकलना हुआ। दोनों इस बात की तोड़ निकालने में
लगे थे कि सत्य और असत्य क्या है? उन्होंने जमीन
की ओर देखा तो नीचे महल के प्राँगण में खेल रहे
दिव्य शक्तियुक्त अद्भुत बालक को देखकर वे नीचे
आएँ और सत्य के साक्षात दर्शन करके उनके मन की
शंकाओं का समाधान हो गया है। इन दो मुनियों ने
उन्हें 'सन्मति' का नाम दिया और खुद भी उन्हें उसी
नाम से पुकारने लगे।
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=: जिनवाणी :=
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काम क्रोध तजि छोड़ी माया, पाली भाषा में रचित है में महावीर को निगंठ्ठ
अर्थात निर्ग्रन्थ नात्तपुत्र के उपाख्य से
उल्लेखित किया गया है।
2. केवलिन् - वर्द्धमान नें 30 वर्ष की अवस्था में सन्यास ग्रहण
कर अगले 12वर्ष घोर तप साधना में व्यतीत
किए अंतत: ऋजुपालिका नदी के तट पर समघा
नामक आर्य के आवास के समीप के पीपल वृक्ष के
नीचे परम् ज्ञान को प्राप्त किया था जिसे कैवल्य
कहा जाता है, कैवल्य की प्राप्ति के कारण ये
केवलिन् भी कहलाए।
3. महावीर - इन्होनें अपना साधना समयावधि में अनेकानेक
शारीरिक, मानसिक, दैहिक, आंतरिक एवम्
बाहरी कष्टों, आतपों, अत्याचारों का दृढ़ता पूर्वक
सामना किया। साधना पथ पर एक क्षण मात्र भी
उनका मन एवम् चित्त आड़ोलित या विचलित
नहीं हुआ जो कि मानव की वास्तविक वीरता है,
अस्तु इन्हें महावीर के उपाख्य नाम से जाना गया
जो कि इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम है।
4. जिन् - यह प्राकृत भाषा का शब्द है जिसका तात्पर्य है
जीतनें वाला या विजेता । महावीर नें तप साधना
से न केवल पाप मुक्ति प्राप्त कर ली अपितु
मानव समाज को भी जन्म मरण के चक्र से
विमुक्ति का ऎक व्यवहारिक जीवन सिद्धान्त
प्रदान किया था। उन्होनें मन की विकृतियों पर
विजय प्राप्त कर ली थी अत: वे जिन् भी कहलाए।
साथ ही यहीं से प्रारम्भ होता है निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय
का नवीन नाम - जैन । जो जिन् अर्थात विजेता
के अनुयायी बनें वे जैनी कहलाए ।
5. सन्मति - बाल्यकाल में महावीर महल के आँगन में खेल रहे थे।
तभी आकाशमार्ग से संजय मुनि और विजय मुनि का
निकलना हुआ। दोनों इस बात की तोड़ निकालने में
लगे थे कि सत्य और असत्य क्या है? उन्होंने जमीन
की ओर देखा तो नीचे महल के प्राँगण में खेल रहे
दिव्य शक्तियुक्त अद्भुत बालक को देखकर वे नीचे
आएँ और सत्य के साक्षात दर्शन करके उनके मन की
शंकाओं का समाधान हो गया है। इन दो मुनियों ने
उन्हें 'सन्मति' का नाम दिया और खुद भी उन्हें उसी
नाम से पुकारने लगे।
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=: जिनवाणी :=
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क्षण में मान कषाय भगाया ।।
रागी नहीं, नहीं तू है द्वेषी,
वीतराग तू है हित उपदेशी ।।
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एक सहस वसु तुमरे नामा,
जन्म लियो कुण्डलपुर धामा।।
सिद्धारथ नृप सुत कहलाए,
त्रिशला मात उदर प्रगट भए।।
तुम जनमत भयो लोक अशोका,
अनहद शब्द भयो तिहुँ लोका।।
इन्द्र ने नेत्र सहस्र करि देखा,
गिरी सुमेर कियो अभिषेखा ।।
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