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मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

सनातन जीवन दर्शन : गृहस्थाश्रम

                   सनातन समाज एवम् मानव जीवन प्रबंधन

                                                                                गृहस्थाश्रम

गत पोस्ट में हमनें ब्रह्मचर्य आश्रम में बालक से युवापन के विकास तक का क्रम देखा था, आज हम सनातन जीवनधारा के द्वितीय चरण पर सतही दृष्टिपात करते हैं जो "गृहस्थ आश्रम" से सम्बोधित किया जाता है। सनातन जीवन दर्शन में प्रत्येक पुरुष (नर एवम् नारी) के लिए चार पुरुषार्थों की प्राप्ति मानव जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है - काम, अर्थ, धर्म एवम् मोक्ष। इनमें से प्रथम दो की प्राप्ति गृहस्थाश्रम में ही सुनिश्चित की गई हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति के पश्चात जब ज्ञान प्राप्ति का उपागम समाप्त हो जाता था तब युवक एवम् युवतियाँ "समापवर्तन संस्कार" के पश्चात् अपनें माता पिता के सानिध्य में घर लौट आते थे। ज्ञात रहे सूत्र एवम् स्मृति साहित्य के रचनाकाल से पूर्व तक कन्याओं को भी यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात गुरू आश्रम में अध्ययनार्थ भेजा जाता था जहाँ उनका पृथक शिक्षणालय होता था और गुरु माताएँ कन्याओं को शिक्षा प्रदान करती थी। शिक्षा समाप्ति एवम् दीक्षांत के पश्चात युवक युवतियों के जीवन का अगला चरण प्रारम्भ होता था ।
                     प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिये जीवन के अगामी पच्चीस वर्ष से पचास वर्ष तक  की आयु का  समय गृहस्थ आश्रम है जिस में उन्हें शास्त्रानुसार विधियों के अनुगत पाणिग्रहण संस्कार के माध्यम से विवाह करना अनिवार्य था। व्यवहारिक तौर पर में तो अविवाहित रहना तथा संतान हीन होनें को अप्राकृतिक एवं अपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता था । नियम यह प्रचलित था कि प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है कि वह ईश्वर की सृष्टि कि निरन्तरता बनाये रखने में अपना योगदान दे। अपनी संतान उत्पन्न कर के उस का समाज हित के लिये पालन पौषण और प्रशिक्षित करे, संतान को उत्तम संस्कारवान बनाए। सनातन जीवन दर्शन में प्रत्येक गृहस्थ पर तीन ऋणों की बात कही गई है जिनसे मुक्त होना अति आवश्यक है :
1.देव ऋण 2. ऋषि ऋण।3.पितृ ऋण ।इन ऋणरुपी उत्तरदायित्तवों को निभाने अथवा निपटानें के लिये धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन भी करे। एक शास्त्रीय आजीविका का स्त्रोत हमारी अर्थ कामनाओं की पूर्ति हेतु आवश्यक है। अर्थ के माध्यम से गृहस्थ न केवल तीन शाश्वत ऋणों सॆ मुक्त होता था अपितु दैनिक पंच यज्ञों को भी भली भाँति सम्पादित निष्पादित करता था। गृहस्थ आश्रम सनातन समाज की आधारशिला है जिस के सहारे हम ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम तथा पर्यावरण के सभी अंग निर्वाह करते हैं। ऐकान्त स्वार्थी जीवन जीने के बजाये मानवों को गृहस्थियों का तरह अपने कर्मों द्वारा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये पाँच दैनिक यज्ञ करने चाहियें। अपनें विवाहोपरांत सन्तान उत्पति अनिवार्य थी क्योंकि सनतानोत्पति के पश्चात हम पितृ ऋण अर्थात माता पिता के ऋण से विमुक्त हो जाएंगे। सनातन जीवन दर्शन में सर्वाधिक पवित्र एवम् कल्याणकारी जीवन चरण गृहस्थ जीवन को ही माना गया है । यहाँ तक की विष्णु के सर्व लोकप्रिय अवतारी स्वरुप श्री राम एवम् श्री कृष्ण भी नियमबद्ध गृहस्थ थे। गृहस्थ जीवन चरण में प्रत्येक गृहस्थी को नैमेत्तिक अर्थात नियमित रुप से प्रतिदिन पाँच यज्ञ करनें अनिवार्य थे , जिनका उल्लेख निम्न है : ---
1. देव यज्ञ - प्रत्येक प्राणी प्रतिदिन प्रकृति से कुछ ना कुछ लेता है
अतः सभी का कर्तव्य है कि जो कुछ लिया है उस की ना केवल
भरपाई की जाये अपितु प्रकृतिक संसाधनों में वृद्धि भी की जाये।
पेड़-पौधों को जल, खाद देना तथा नये पेड़ लगाना और इसी प्रकार
के अन्य कार्य इस क्षेत्र में आते हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए
प्रत्येक गृहस्थी को नित्य स्वेच्छा से योगदान देना चाहिये।
2.पितृ यज्ञ – सनातन समाज में अपने से आयु में बड़ों का सदैव
आदर सम्मान किया जाता है। जीवन हमारे पूर्वजों की देन है अस्तु
हमारा यह परम् कर्त्तव्य है कि हम अपने माता पिता तथा सभी
पूर्वजों के प्रति अपनी कृतज्ञता सदैव प्रगट करते रहे तथा अपने माता
पिता तथा अन्य वयोवृद्धों की सेवा सुश्रुषा और सहायता करे।
3. ब्रह्म यज्ञ – गुरुजनों को आदर सत्कार देना भारतीय समाज की
पुरातन परम्परा है। गुरु जन जिज्ञासु विद्यार्थियों को विध्या दान
देते थे । गृहस्थियों का कर्तव्य है कि वह अपने आस पास के गुरुजनों,
बुद्धिजीवियों की निजि आवश्यकताओं की आदर पूर्वक पूर्ति करें
क्योंकि जिस विध्या के सहारे गृहस्थी जीविका कमाते हैं वह गुरुजनों
ने उन्हें दानस्वरूप दी थी। गुरु के ऋण से मुक्ति हेतु निर्धन बालकों
की शिक्षा व्यवस्था अति लाभकारी ब्रह्म यज्ञ है।

4. नृ यज्ञ – इस यज्ञ का उद्देष्य समाज तथा मानव कल्याण है। इस
यज्ञ  में अपने आस पास स्वच्छता और सुरक्षा रखना, समाज में भाईचारे
को बढ़ावा देना तथा त्यौहारों को सामूहिक तौर से मनाना आदि शामिल
है जिस से समाज में सम्वेदन शीलता, सदभावना, कर्मनिष्ठा तथा
देशप्रेम को बढ़ावा मिलता है। अपनें आवास पर आए अतिथि की
निस्वार्थ सेवा इस यज्ञ का सबसे कल्याणकारी कर्म है। अतिथि देवो
भव का आधार मानव जीवन का यह नृ यज्ञ ही है।
5. भूत यज्ञ -  इस यज्ञ का उद्देष्य पशु-पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति
संवेदनशीलता रखना है। मानव रुप में हम धरा के श्रेष्ठतम प्राणी हैं
अस्तु इतर प्राणियों के प्रति दया , सुरक्षा तथा संरक्षण का भाव इस यज्ञ
में अपेक्षित है। चींटियों, श्वानों, गौओं के लिए खाध्य का अंशदान ही
भूत यज्ञ है। वस्तुत: सम्पूर्ण चराचर की सेवा ही इस यज्ञ का मूल
भाव है।
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